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कुमारपालरास की प्रशस्ति के बारे में भी कही जा सकती है; किन्तु इसी शाखा में हुए पं० रामचन्द्रगणि के गुरुभ्राता कस्तूरचन्द्र द्वारा वि०सं० १९०४ में की गयी द्रौपदीचरित की प्रतिलिपि की प्रशस्ति में इस शाखा की लम्बी गुर्वावली १९ प्राप्त होती है, जो निम्नानुसार है :
पं० रामचन्द्रगणि
पुष्पहर्ष
|
शान्तिकुशल
T
अमृतप्रभ
नयसागरगणि
I
जयसौभाग्यगणि
I
वाचनाचार्य माणिक्यउदयगणि
T
वाचनाचार्य मुक्तिसिंधुरगणि 1 सुखशीलगणि
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कस्तूरचन्द (वि० सं० १९०४ में द्रौपदीचरित के प्रतिलिपिकार) जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं पं० चारित्रउदय ने श्रीपालराजारास की प्रशस्ति में और माणिक्यउदयगणि ने कुमारपालराजारास की प्रतिलिपि की प्रशस्ति में अपने गुरु के रूप में जयसौभाग्यगणि का उल्लेख किया है। ऊपरकथित द्रौपदीचरित की प्रतिलिपि की प्रशस्ति में भी जयसौभाग्यगणि का नाम मिलता है अतः समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर उक्त प्रशस्तियों में उल्लिखित जयसौभाग्यगणि को एक ही व्यक्ति माना जा सकता है।
पुष्पहर्ष के द्वितीय शिष्य अभयकुशल हुए, जिन्होंने वि०सं० १७०९ में जिनपालितजिनरक्षितरास; वि०सं० १७३५ में हरिबलचौपाई; वि० सं०) १७३७ में ऋषभदत्तरूपवतीचौपाई आदि की रचना की। २० उक्त कृतियों की प्रशस्तियों में उन्होंने अपने गुरु पुष्पहर्ष का सादर उल्लेख किया है।
उपरोक्त प्रशस्तियों में उल्लिखित छोटी-छोटी गुर्वावलियों के समायोजन से एक
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