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विश्वधर्म सम्मेलन जैसे संगठन की स्थापना में निर्विघ्न रूप से संसार से धार्मिक विद्वेष को मिटा देने की योजना निहित है जिसकी पुष्टि सिद्धाचलम् की स्थापना से भी होती है।
विश्व कल्याण की उनकी महत्वाकांक्षा को देखते हुए ८ मई सन् १९७५ ई० को संसद सदस्यों ने उनका अभिनन्दन करते हुए कहा था- "आज के अनेक राष्ट्रों में बंटे खण्डित विश्व को अखण्ड विश्व के रूप में देखने की आपकी कल्पना है। अनेक धर्म, जाति, वेश-भूषा व भाषा के टुकड़ों में बंटे विश्व में एकता स्थापित करने के लिये आपके हृदय में तड़प है। आपकी यही कामना है कि आज के आणविक युग में जब तक विश्व में सर्वधर्मसमभाव, सर्वराष्ट्र, सर्वजाति, समान अधिकार जैसी उच्च भावनाएं स्थापित नहीं होतीं, तब तक विश्व शान्ति का दर्शन असम्भव है। राष्ट्र को आपसे समय-समय पर सफल नेतृत्व मिलता रहा है और प्रत्येक सांस्कृतिक संकट और वैचारिक टकराव की स्थिति में आपने रचनात्मक शक्तियों को संजोकर उसे सही दिशा दी है । भगवान् महावीर के अनुयायी के रूप में देश से बाहर जाकर आपने भारतीय सिद्धान्तों व आदर्शों का प्रचार किया है। "
आचार्य सुशीलकुमार जी ने आज की विकट प्रदूषण समस्या के विषय में स्वयं है - " प्रदूषण से वायु दूषित पानी दूषित, धरती दूषित, मानव का तन और न दूषित हो रहा है। हम क्यों अपने घर को नरक बनाने पर तुले हुए हैं? हमें चेतना है, उठना है, इस बर्बादी को रोकना है। जीयो और जीने दो के सिद्धान्त पर प्रकृति सन्तुलन बनाना है ।"
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आचार्य डॉ० साध्वी साधना ने अपने पूज्य गुरु के महान् सिद्धान्तों को प्रस्तुत ग्रन्थ में बड़ी कुशलता के साथ सजाया है। साथ ही अपने विचारों को भी समुचित ढंग से रखने का सफल प्रयास किया है। इसके लिये उन्हें बधाई है।
किन्तु मेरी राय में आ० साधना जी को यहीं पूर्ण विराम न लेकर, इस ग्रन्थ को आचार्य सुशीलकुमार जी के चिन्तन की पृष्ठभूमि मानकर उनके दर्शन की विभिन्न विधाओं पर विस्तारपूर्वक अलग-अलग ग्रन्थों की रचना करनी चाहिए, जिस प्रकार सुकरात के सुशिष्य प्लेटो ने उनके दर्शन को विस्तार प्रदान किया है। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक है, छपाई सुस्पष्ट है।
डॉ० बशिष्ठनारायण सिन्हा
प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन : लेखक- प्रो० उदयचन्द्र जैन, प्रकाशकप्राच्य श्रमण भारती, १२ / १ प्रेमपुरी, निकट जैन मन्दिर मुजफ्फरनगर (उ०प्र०)२५१००१, मूल्य- पचास रुपये, पृ० २८४.
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