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कोई भी अन्य जैन स्तूप भारत में आज तक नहीं पाया गया है। इस कारण इस कार्य का महत्त्व द्विगुणित होगा। इस स्थान से विपुल सामग्री प्राप्त हई है जिसका
समुचित अध्ययन इस प्रकार के पुनः निर्माण से ही हो सकेगा अन्यथा नहीं। (२) इस टीले से निकली पुरा-सम्पदा अधिकतर लखनऊ संग्रहालय में तथा शेष
सामग्री मथुरा, कलकत्ता व लन्दन के संग्रहालयों में है। किसी भी अध्ययन के लिये यह उपयुक्त होगा कि लखनऊ, मथुरा एवं कलकत्ता संग्रहालयों की पुरा-सम्पदा को एक स्थानीय संग्रहालय में संगृहीत किया जावे। इस सामग्री में अधिकतर सामग्री अप्रदर्शित है। एक अनुमान से केवल २ या ३ प्रतिशत सामग्री ही प्रदर्शित है। प्रथम चरण में स्थानीय संग्रहालय में कम से कम यह अप्रदर्शित सामग्री लायी जावे एवं उसका सही मूल्यांकन एवं प्रदर्शन किया जावे। प्रदर्शित सामग्री को देने में कुछ आनाकानी संग्रहालय के प्रबन्धकों की ओर से हो सकती है, परन्तु वह सामग्री जो पिछले ५० वर्षों से प्रदर्शित नहीं की गयी उसे स्थानीय संग्रहालय में ले जाने से तो इन संग्रहालयों को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। इस प्रकार के स्थानीय संग्रहालय पहले ही सारनाथ, नालन्दा, वैशाली आदि
पुरातत्त्व की साइट पर हैं। (३) इस स्तूप जितना पुराना अन्य कोई स्थापत्य इस देश में नहीं है। इस कारण
भी इसका अध्ययन आज की वैज्ञानिक पद्धति से आवश्यक है। इस स्तूप का वरचुअल रिकन्स्ट्रक्शन कम्प्यूटर द्वारा किया जा सकता है एवं यहाँ से प्राप्त ईटों का थमोल्युमिनसेंस टेस्ट द्वारा इसके काल का सही निर्णय किया जा
सकता है। (४) यहाँ से निकली सामग्री का एक बृहत् एवं आधुनिक कैटलाग (सूचीपत्र) छापा
जाना आवश्यक है। पूर्व में जो सूचना प्रकाशित है यह ५० वर्षों से अधिक
पुरानी है। कार्यों का माध्यम (१) उपरोक्त पहला, दूसरा व चौथा कार्य शासन के माध्यम से ही होना सम्भव है।
उपरोक्त तीसरा कार्य भी उपरोक्त शेष दोनों कार्यों के साथ-साथ किया जाना
चाहिए। (२) जैन संस्था,जो सभी जैनियों की बनी है, वह उपरोक्त कार्यों को कराने हेतु शासन
पर दबाव बनाये। इस कार्य के लिये यही सही समय है। शासन ने पहले ही १०० करोड़ रुपया जैनधर्म के कार्यों हेतु घोषित किया है इसमें से लगभग एक करोड़ रुपया इस कार्य हेतु लगाना आवश्यक है।
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