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मन्दिरों के अवशेष एवं ७३७ कलाकृतियाँ मिली। फ्यूरर भवनों के विस्तृत मानचित्र
और छायाचित्रों के विवरण का उचित सूचीकरण कर सकने में असमर्थ रहा। उन पुरावशेषों का पूर्वापर सम्बन्ध क्या था और वे किन-किन भवनों के थे, इसका भी उन्होंने कोई विवरण नहीं रखा। ये सम्पूर्ण सामग्री मथुरा, लखनऊ, कलकत्ता, लन्दन आदि के संग्रहालयों में सुरक्षित है। यहाँ से उपलब्ध जैन अभिलेखों की संख्या ११० है।
शिलालेखों एवं मूर्तिलेखों से काल-निर्णय- पुरातत्त्वविद् विसेण्ट स्मिथ का कहना है कि यह स्तुप निश्चित रूप से भारत में प्राप्त स्तूपों में सर्वाधिक प्राचीन है। यहाँ के एक शिलालेख से स्पष्ट होता है कि ईसा-पूर्व द्वितीय शताब्दी के मध्य में एक जैन मन्दिर (प्रासाद) में उत्तर दासन नामक श्रावक द्वारा एक प्रासाद-तोरण समर्पित किया गया। यहाँ से प्राप्त एक आयागपट्ट पर विहार शब्द भी अंकित है जिससे स्पष्ट है कि मुनियों के रहने हेतु विहार भी यहाँ बने थे। ईसवी सन् १५७ के एक मूर्तिलेख में यहाँ पर देव निर्मित वोद्व स्तूप पर अर्हत् मुनिसुव्रत की प्रतिमा प्रतिष्ठित करने का उल्लेख है। देव निर्मित वोव स्तूप से यह अर्थ निकलता है कि स्तूप इतना पुराना था कि लोग उसके निर्माण का समय भूल चुके थे।
साहित्यिक प्रमाण- विविधतीर्थकल्प-रचनाकाल १४वीं शताब्दी में लिखा है कि सुपार्श्वनाथ स्वामी के तीर्थ में धर्मरुचि और धर्मघोष नामक दो मुनियों की तपस्या के प्रभाव से प्रभावित हो उस वन की अधिष्ठात्री देवी कुबेरा ने सोने तथा रत्नों से मण्डित, तोरण मालाओं से अलंकृत, शिखर पर तीन छत्रों से सुशोभित एक स्तूप का निर्माण किया। उसकी चारों दिशाओं में पंचवर्ण रत्नों की मूर्तियाँ विराजमान थीं। उसमें मूल प्रतिमा सुपार्श्वनाथ स्वामी की थी। पार्श्वनाथ के काल में मथुरा के राजा ने स्तूप को लूटना चाहा, परन्तु देवताओं ने ऐसा नहीं होने दिया। तदुपरान्त भगवान् पार्श्वनाथ का यहाँ आगमन हुआ। उनके विहार के पश्चात् देवों ने इस स्तूप को सुरक्षार्थ ईटों से ढंक दिया
और मुख्य स्तूप के बाहर एक पाषाण मन्दिर बनवाया। इन्हीं आचार्य के विवरणानुसार नौवीं शताब्दी ईसवी में बप्पभट्टिसूरि ने इस स्तूप का जीर्णोद्धार कराया, कूप कोट बनवाया, और जो ईटें खिसक रही थीं, उनको हटाकर स्तूप को पत्थर से वेष्ठित कराया।
__ कवि राजमल्ल ने जम्बूस्वामीचरित्र में लिखा है कि उनके संघ ने इस सिद्धक्षेत्र की वन्दना की व ईसवी सन् १५७३ में उन्होंने दो प्रमुख स्तूप- जम्बूस्वामी का स्तूप, विद्युच्चर मुनि का स्तूप-मिलाकर कुल ५०१ स्तूप एक स्थान पर व १३ स्तूप एक स्थान पर, का पुनरुद्धार कराया। गार्गीसंहिता से ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी के आरम्भ में ही पुष्यमित्र शुंग (लगभग १८७ से १५१ ईसा पूर्व) से पहिले मथुरा को यवन-आक्रमण का सामना करना पड़ा था।
इस प्रकार पुरातत्त्व एवं साहित्य के प्रमाणों को जोड़ने से स्पष्ट है कि ईसा पूर्व
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