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माना है। उनकी विशेषता यह है कि वे पूर्व प्रचलित द्रव्य के स्वरूप को यथावत् स्वीकार करते हुए भी उसका नय दृष्टि से विवेचन करते हैं। सन्मति-प्रकरण के अनुसार पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से सभी पदार्थ नियम से उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं। द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि-सी सभी पदार्थ सर्वदा के लिये उत्पत्ति और विनाश रहित ही हैं। उत्पत्ति और नाश रूप पर्यायों से रहित द्रव्य नहीं होता और द्रव्य अर्थात् ध्रुवांश से रहित कोई पर्याय नहीं होती। कहा भी है
दव्वं पज्जववियुयं दव्वविउत्ता य पज्जवा णत्थि।
उप्याय-ट्ठिइ-भंगा हंदि दवियलक्खणं एय।।४३ यह त्रिपदी ही वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता का आधार है। वस्तु के त्रयात्मक स्वरूप का समर्थन समन्तभद्र,४४ जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण,४५ अमृतचन्द्रसूरि,४६ जिनदासगणि४७ तथा अभयदेवसूरि ८ आदि प्रमुख जैन दार्शनिकों ने भी किया है। उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य का भेदाभेदवाद
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का समन्वित रूप ही द्रव्य या सत् है, परन्तु इन तीनों का परस्पर क्या सम्बन्ध हैं, ये तीनों एक साथ होते हैं या क्रम से, तीनों का काल भिन्न है या अभिन्न? आदि प्रश्न महत्त्वपूर्ण हैं। उमास्वाति ने 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' कहकर सत् की अवधारणा तो दी, लेकिन उत्पाद आदि के परस्पर सम्बन्ध की उन्होंने कोई चर्चा नहीं की। सिद्धसेन दिवाकर ने इस अवधारणा पर नयदृष्टि से विचार किया है। उनके अनुसार
तिण्णि वि उप्यायाई अभिण्णकाला य भिण्णकाला य।
अत्यंतरं अणत्यंतरं च दवियाहि णायव्वा।।
अर्थात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों का काल भिन्न भी और अभिन्न भी। इसी प्रकार उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप यह लक्षण भी लक्ष्यभूत द्रव्य या सत् से भिन्न भी है और अभिन्न भी। क्रमवर्ती दो पर्यायों को लेकर उनके उत्पाद और विनाश का यदि विचार करें तो उन्हें समकालीन कहा जा सकता है, क्योंकि जिस समय पूर्व पर्याय का विगम (नाश) होता है उसी समय उत्तर पर्याय का उत्पाद होता है। उत्पाद और विनाश के समय वस्तु सामान्य धर्म की अपेक्षा स्थिर रहती है अत: तीनों अभित्रकालिक हैं।५० यदि हम एक ही पर्याय की दृष्टि से विचार करें तो उत्पाद आदि तीनों को भिन्नकालिक मानना होगा। क्रमवर्ती पर्यायों में जहाँ पूर्व पर्याय का अन्तिम क्षण ही उत्तर पर्याय का आदि क्षण होता है वहीं एक ही पर्याय का आदि क्षण और अन्तिम क्षण भिन्न-भिन्न होता है। मृत्तिका के नाश व घट के उत्पाद का एक ही समय हो सकता है पर घट के उत्पाद और घट के ही विनाश का एक समय नहीं हो सकता। एक ही पर्याय के
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