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उपयोग कर रहे हैं। इनकी जनसंख्या मात्र २० प्रतिशत है। परिणामस्वरूप विश्व की एक बड़ी आबादी गरीबी, कुपोषण, भूख, बीमारी इत्यादि से ग्रसित है। विकसित एवं अविकसित देशों में असमानता बढ़ती ही जा रही है। अहिंसा का महत्त्व
भगवान् महावीर ने जो सबसे बड़ा सन्देश दिया वह अहिंसा का सन्देश है। अहिंसा का अर्थ है जीव मात्र के प्रति प्रेम, सम्मान एवं एकात्मता का भाव। यहीं भाव आज के विश्व में वास्तविक सुख, शान्ति एवं सौहार्द उत्पन्न कर सकता है। वर्तमान विश्व की समस्याओं के निराकरण में इस सिद्धान्त की क्या भूमिका है, इस पर विचार किया जाना चाहिए। अहिंसा का सिद्धान्त केवल मनुष्यों या पशुओं तक ही सीमित नहीं है; किन्तु इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है। जैनधर्म मानता है कि वनस्पति में भी जीव है। यहाँ तक कि पृथ्वी, अग्नि, जल एवं वायु में भी अदृश्य जीव हैं, जिन्हें एकेन्द्रिय जीव कहते हैं। अत: उनकी भी रक्षा की जानी चाहिए। अत: जैनधर्म के अनुसार वृक्षों को काटना या वनस्पति को नष्ट करना, भूमि को अनावश्यक खोदना, जल का अनावश्यक बड़ी मात्रा में उपयोग हिंसा का कारण है। आज पर्यावरण वैज्ञानिक एवं वन्य-जन्तु विशेषज्ञ भी कहते हैं कि जंगली जानवरों की रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि वे प्रकृति का सन्तुलन बनाने में सहायक हैं। प्रत्येक जीव का, चाहे वह छोटी-सी चींटी हो या 'बृहदाकाय हाथी, प्रकृति की सुरक्षा में महत्त्व है। आज वनस्पति के रक्षण, नदियों को प्रदूषण से बचाने एवं पृथ्वी की सम्पदा की रक्षा के लिये आन्दोलन चल रहे हैं। इस प्रकार तीर्थङ्करों ने हजारों वर्ष पहले प्राणी-रक्षा पर जो जोर दिया था, उसी का समर्थन आज के वैज्ञानिक कर रहे हैं। प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व
विश्व के सभी प्राणियों को प्रकृति के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध बनाना चाहिए। तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वाति ने कहा, “परस्परोपग्रहो जीवानाम्' अर्थात् संसार के सभी प्राणी एक दूसरे को सहयोग प्रदान करते हैं। वे एक दूसरे से अलग नहीं रह सकते। उनको एक दूसरे के सुख-दुःख को समझ कर उसमें सहभागी बनना चाहिए। दुर्भाग्य से आज का मनुष्य अपने आपको सर्वश्रेष्ठ जीव मानता है और वह प्रकृति की सभी शक्तियों पर नियन्त्रण करना चाहता है। यह एक भ्रामक धारणा है। मनुष्य को जीवित रहने में वनस्पति, नदियाँ, पहाड़, जीव-जन्तु इत्यादि उसकी मदद करते हैं अत: अगर मनुष्य जीवन में शान्ति एवं आनन्द चाहता है तो उसे उन सभी की रक्षा करनी चाहिए तथा उनको शोषण से बचाना चाहिए।
जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार हिंसा जीव के बन्धन का मुख्य कारण है, इससे आत्मा की शक्तियां क्षीण होती हैं तथा मनुष्य राग एवं द्वेष से ग्रसित होकर पतन को
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