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________________ १९५' करने वाले छात्रों का मार्गदर्शक तथा पाण्डुलिपि- सम्पादन- संशोधन करने वाले विद्वानों के लिये एक आदर्श है। ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के प्रामाणिक रूप में सम्पादन और उसके प्रकाशन तथा अत्यल्प मूल्य पर उसके वितरण के लिये सम्पादक, प्रकाशक और उनके सहयोगी बधाई के पात्र हैं। पञ्चाल, अंक १२, वर्ष १९९९; प्रधान सम्पादक- डॉ० करुणा शंकर शुक्ल; प्रकाशक- पञ्चाल शोध संस्थान, ५२/१६, शक्करपट्टी, कानपुर (उत्तर प्रदेश); आकार- रायल; पृष्ठ १०+२३४+३५ चित्र; मूल्य १५०/- रुपये। सुप्रसिद्ध पुरातत्त्वविद् स्व० प्रो० कृष्णदत बाजपेयी द्वारा स्थापित और स्वनामधन्य श्रेष्ठिवर्य श्री हजारीमल जी बांठिया द्वारा पोषित पंचाल शोध संस्थान ने शोध के क्षेत्र में जो कीर्तिमान स्थापित किये हैं, वह स्तुत्य है। संस्थान द्वारा प्रकाशित वार्षिक शोध पत्रिका पञ्चाल देश के मूर्धन्य विद्वानों के शोध आलेखों से परिपूर्ण रहती है। प्रस्तुत पुस्तक पञ्चाल का १२वां अंक है। इसमें कुल ३१ लेख हैं जिनमें से २३ लेख हिन्दी भाषा में और ८ लेख आंग्ल भाषा में हैं। पूर्व की भांति यह अंक भी पूर्णरूपेण प्रामाणिक और प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व के विभिन्न विधाओं से सम्बद्ध है। ये सभी आलेख शोधकर्ताओं के लिये पथप्रदर्शक का कार्य करने में पूर्णरूपेण सक्षम हैं। इनकी उपयोगिता के बारे में कुछ भी कहना सूर्य को दीपक दिखलाना है। विद्वान सम्पादक महोदय द्वारा किये गये लेखों का चयन और उनका सम्पादन अत्यन्त प्रशंसनीय है। यही कारण है कि पंचाल शोध संस्थान की शोध पत्रिका पञ्चाल का आज पूरे विश्व में प्रचार-प्रसार है। प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व के मूर्धन्य विद्वानों को पञ्चाल शोध संस्थान के मंच पर इकत्र करना श्री बांठिया जी जैसे निष्काम कर्मयोगी द्वारा ही सम्भव है। हमें विश्वास है कि भविष्य में भी यह शोध पत्रिका इसी प्रकार से हम सभी का मार्गदर्शन करती रहेगी। ___Santbal : A Saint with a difference : T.U. Mehta; Publisher- Navajivan Publishing House, Ahmedabad-380014; First Edition 1996; Size-Dimay, pp 16+124; Prise - Rs. 50/ २०वीं शताब्दी में गुजरात के महान् पुरुषों में संतबाल का नाम अत्यन्त आदर के साथ लिया जाता है। उन्होंने यद्यपि स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय की मुनि दीक्षा ली थी, किन्तु वे किसी धर्म या पंथ से बंध कर कभी नहीं रहे और मानव सेवा के कार्य में आजीवन लगे रहे। अपने आदर्शों के कारण उन्हें जैन समाज की कटु आलोचना • भी झेलनी पड़ी, परन्तु वे अपने मार्ग से नहीं डिगे। एक गृहत्यागी व्यक्ति समाजसेवा और निर्धन वर्ग के उत्थान के लिये किस प्रकार रचनात्मक कार्य कर सकता है, इसका परिचय हमें सन्तबाल की जीवनी से भली-भांति मिल जाता है। इस पुस्तक के लेखक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525042
Book TitleSramana 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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