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________________ में और १ रचना समकालीन हिन्दी भाषा में है। पुण्यास्त्रवकथा अपभ्रंश साहित्य में युगीन परिस्थितियों की झांकी देने वाला गौरव ग्रन्थ है। भाषा की दृष्टि से यह व्रज, अवधी, बुन्देली, बघेली एवं हिन्दी के उद्भव एवं विकास के स्रोत के साथ ही समकालीन जनपदीय इतिहास, संस्कृति एवं लोकजीवन के अध्ययन के लिये भी एक नया आयाम प्रस्तुत करता है । पुण्यास्त्रवकथाकोश अभी तक अप्रकाशित ही रहा। इसके सर्वप्रथम सम्पादन, हिन्दी अनुवाद, समीक्षात्मक प्रस्तावना, शब्दार्थ सूची तथा ग्रन्थ प्रतिलिपिकार द्वारा लिखित उत्तरमध्यकालीन ब्रजभाषा में प्राय: कडवकानुसार कथा संक्षेप को प्रस्तुत करने का श्रेय अपभ्रंश भाषा के विश्वविश्रुत विद्वान् तथा रइधू साहित्य के मर्मज्ञ स्वनामधन्य प्रो० ( डॉ० ) राजाराम जैन को है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में उनके द्वारा लिखित ३० पृष्ठों की विस्तृत प्रस्तावना है जिसके अन्तर्गत उन्होंने पुण्यास्रव - कथा की पृष्ठभूमि, अपभ्रंश भाषा, उसके कुछ प्राचीन सन्दर्भ, अपभ्रंश - साहित्य और उसका महत्त्व, रइथू के पूर्ववर्ती अपभ्रंश साहित्य की प्रवृत्तियाँ, अपभ्रंश कथाओं का वर्गीकरण एवं उनमें पुण्यास्त्रवकथा का स्थान, कथास्रोत, प्रति परिचय एवं उसकी लिपि तथा भाषा सम्बन्धी विशेषतायें, विषय सामग्री का वर्गीकरण, ग्रन्थकार का विस्तृत परिचय, उनके द्वारा रचित कृतियों की सूची, रचनाकार का समय, रचनाकार के आश्रयदाता, समकालीन शासक, विवेच्य ग्रन्थ का परिशीलन, काव्यमूल्य, वस्तु-वर्णन योजना, रस योजना, भाषा, ग्रन्थ में वर्णित तत्कालीन इतिहास एवं संस्कृति, गोपाचल दुर्ग की जैन मूर्तियां एवं रइधू, ग्रन्थ में उल्लिखित सूक्तियों आदि की विशद् चर्चा की है। प्रस्तावना के पश्चात् मूल ग्रन्थ और उसका हिन्दी भाषा में अनुवाद प्रस्तुत है । सम्पूर्ण ग्रन्थ १३ सन्धियों में विभक्त है और सन्धियाँ विभिन्न कडवकों में । इसी क्रम से प्रत्येक कडवक फिर उसका हिन्दी रूपान्तरण दिया गया है । ग्रन्थ के अन्त में एक परिशिष्ट और शब्दानुक्रमणिका भी दी गयी है। ऐसे महत्त्वपूर्ण और गौरवशाली ग्रन्थ को प्रामाणिक रूप से सम्पादन और उसका शुद्ध रूप से प्रकाशन एक चुनौती भरा कार्य है । ग्रन्थ की प्रस्तावना में सम्पादक डॉ० राजाराम जी ने यह स्पष्ट किया है कि "पाण्डुलिपि की खोज, उद्धार, सम्पादन, अनुवाद एवं तुलनात्मक समीक्षा सर्वाधिक कठिन, जटिल, दुरूह तथा कष्टसाध्य, धैर्यसाध्य एवं व्ययसाध्य कार्य है। यही कारण है कि लोग इस क्षेत्र में आना ही नहीं चाहते । विद्वानों की इस अरुचि से पाण्डुलिपि साहित्यका क्षेत्र पर्याप्त क्षतिग्रस्त हुआ और हो रहा है। नयी पीढ़ी यदि चाहे तो इस क्षेत्र में वह उत्तम कार्य कर यशोपार्जन कर सकती है। सम्पादक महोदय का उक्त कथन पूर्णरूपेण सत्य है। आज अनेक लोग जैनधर्म पर कुछ पुस्तकें और लेखादि लिखकर विद्वान् होने का दम्भ भरते हैं; किन्तु उक्त क्षेत्र में आने का साहस ही नहीं करते । रइधू साहित्य के उद्धारक प्रो० राजाराम जी द्वारा सम्पादित यह ग्रन्थ भी उनकी पूर्व की कृतियों के समान ही उनका सुयश फैलायेगी, इसमें सन्देह नहीं है। इतनी बड़ी पुस्तक का मूल्य मात्र ७५/- रुपये रखना प्रकाशक की उदारता का ही परिणाम है। यह पुस्तक अपभ्रंश साहित्य पर शोधकार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only १९४ - www.jainelibrary.org
SR No.525042
Book TitleSramana 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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