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निरंतर गतिमान काल ने लालचंद को शैशव से युवावस्था में प्रवेश कराया। लेकिन पूर्व जन्म के उद्भूत आत्मसंस्कारों ने अवस्थासहज विकार का प्रवेश अवरुद्ध कर दिया। परिणाम यह आया कि आत्मा में परमात्मा बनने की तड़प पैदा हुई।
....... लेकिन परमात्मा तो इंद्रियविजेता बन सकता है, परमात्मा कषाय अग्नि से अदग्ध होता है।
युवा लालचंद ने परमात्मा बनने का निश्चय कर लिया था इसलिये ही परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में लगे हुये मुनिवरों का वह चरणसेवक बन गया। फलत: जीवन में अद्भुत परिवर्तन हो गया। संसारी आत्मा परमात्मा बनने की तड़पन से संयत आत्मा बन गया-मुनि बन गया। युवा लालचंद २० वर्ष की उम्र में मुनि लब्धिविजय बन गये। गुरुकुलवास : माँ और गुरु में यदि अंतर हो सकता है तो इतना ही, कि माँ प्रधानतया देहचिंता करती है और गुरु प्रधानतया आत्मचिंता करता है। माँ के खुद के अन से बने हुए निर्मल दूध से पोषण करती है। गुरु खुद के कष्टमय शास्त्राभ्यास से।
मुनि लब्धिविजय का आत्मपोषण करनेवाले थे सद्धर्म संरक्षक जैनाचार्य श्रीमद्विजयकमलसूरीश्वरजी म. सा.। आपकी विशेषता यह थी कि आप ब्राह्मण कुलोत्पन्न थे और इसी कारण से वेद पारंगत भी। आपके गुरु थे जैनाचार्य विजयानंद सूरीश्वरजी जो पंजाब के सिख कुल में उत्पन्न हुए थे। मुनि लब्धिविजयजी के गुरु
और प्रगुरु दोनों ही जन्मना नहीं अपितु कर्मणा जैन बने थे। इतना ही नहीं, उक्त दोनों महापुरुष स्थानकवासी जैन संप्रदाय में रहे भी, लेकिन शास्त्र का सूक्ष्म अध्ययन
और सात्त्विकता में उक्त दोनों महापुरुषों को भगवान् के सर्वस्वरूप को माननेवाली शास्त्रनिर्दिष्ट परंपरा में परिवर्तित होने के लिये बाध्य किया।
संवत् १९३२ के ऐतिहासिक संप्रदाय परिवर्तन में करीब २० महात्मा थे। आपके प्रगुरु विजयानंदसूरीश्वरजी इस यूथ में सबसे बड़े और आप के गुरु आचार्यदेव कमलसूरीश्वरजीमहाराज सब से छोटे थे।
माता के प्राकृतिक संस्कार बच्चों को प्राप्त होना सहज है। इस तरह शिष्य को गुरु-परंपरा से शास्त्रप्रेम और सात्त्विक्ता प्राप्त होना सहज है।
मुनिजीवनमें गुरुकुलवास असाधारण गुणों का जनक बनता है। केवल साधक अवस्था तक ही गुरुकुलवासकी जरूरत है- ऐसा मानना भ्रांतिपूर्ण है। आजीवन गुरुकुलवास भी महान् साधना का विषय है। विनय, सतत् सहनशीलाता और स्वाभाविक निरभिमानता के बिना आजीवन गुरुकुलवास अशक्य है। संयुक्त-कुटुम्ब में
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