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________________ ७२ गया है और हो जाएंगे। त्याग सिवाय वास्तविक तृप्ति होनी नहीं है इसलिए तुच्छ भोग विलास में न डूबिए बल्कि शाश्वत सुख को देने वाले चरित्र में स्थिर रहने का प्रयत्न कीजिए। धर्म का मूल दया : दया ही धर्म का सही रहस्य है। सभी धर्मों की ओजस्विता दया में ओत-प्रोत है। जहाँ दया है, प्राणियों के रक्षण की सद्भावना है, वहाँ संपत्ति सुख और आरोग्य सुख परस्पर सहेली बनकर दयावंत की सेविका बनी रहती है। जिन मानवों के रक्त कण में प्राणी मात्र के प्रति दया बहती रहती है। वही सच्चा मनुष्य है। वही प्राणियों के प्राणों को स्वयं के पापी पेट और जीह्वा के तुच्छ स्वाद के लिए छीनने वाला हिंसक मानव नहीं हो सकता। मूक पशु या अन्य असहाय प्राणी किस न्यायाधीश के सामने पुकार करें। ददाति दुखं योऽन्यस्य ध्रुवं दुःखं स विदन्ते । तस्मान्न कस्यचिद् दुखं, दातव्यं दुःख भीरुणा । । जो मनुष्य दूसरों को दुःख देता है वह स्वयं दुःख को अपने लिए बुलाता है इसलिये दुःख से बचने के लिए दूसरों को कदापि दुःख नहीं देना चाहिए । स्कन्दादि पुराणों में भी जीव दया की पुष्टि की है। धर्मो जीवदया तुल्या, न क्वचापि जगति तले । तस्मात् सर्वप्रयत्नेन, कार्या जीवदया नृभिः । । जीवदया तुल्य दूसरा कोई भी जगत् में धर्म नहीं है अतः सर्व प्रयत्नों से जीवदया करनी चाहिए। यो दद्यात काचनं मेरूं, कृत्स्नां चैव वसुंधरां । एकस्य जीवितं दद्यात, न तत तुल्यं युधिष्ठिर । । हे युधिष्ठिर, जो कोई मनुष्य सोने का मेरु पर्वत और सम्पूर्ण पृथ्वी का दान करता हो और एक व्यक्ति एक प्राणी को जीवनदान करता है तो दोनों बराबर नहीं होते, जीव दया का दान करने वाला ऊँचा और श्रेष्ठ होता है। हेमधेनुधरादीनां दातारः सुलभा भवि । दुर्लभः पुरुषो लोके, यः प्राणिएव भयप्रदः । । सोना, गाय और पृथ्वी का दान करने वाले मनुष्य सरलता से मिल जाते हैं किन्तु प्राणियों को अभयदान देने वाले पुरुष जगत् में कठिनता से मिलते हैं। यावंति पशुरोमणि, पशु गात्रेषु भारत? तावद्धर्ष सहस्त्राणि पच्यन्ते पशुघातकाः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525041
Book TitleSramana 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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