________________
महात्मा लब्धिसूरिदेव
-
• सुरेश सरल
पूर्ण करते प्यास धर्म की, श्रावक गद्गद् होते हैं, ज्योति ज्ञान की जला "लब्धिमय", पापों का तम नशते हैं। यश जो सदा चरण छूता था, कभी न उनको चाह रही है, रही अपरिमित तुष्टि हृदय में, निधियों की न चाह रही है।।
००० नन्हें से तन की गागर में, सागर सभी समाने थे, जिसका परिचय हुआ, उसी ने सर्व पदारथ जाने थे, जीवन उनका बीत रहा था, जिनवाणी को सुना सुना, चिरकाली चिरव्यापी जिनवर, जिनने मन में सदा गुना।।
००० गुरुवर मन में रहें सदा, शुभ मार्ग हमें दिखाते थे, जीवन के हर कठिन मार्ग के, प्रश्न तुरन्त सुलझाते थे। जो हित-मित-प्रिय सत्वादी थे, शत-शत नमन हमारा है, उस पथ के हम हों अनुयायी , जो पथ उनने धारा है।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org