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________________ प्रभुता से प्रभुता दूर-लघुता में प्रभुता हजूर संसार में प्राणी जन्म लेकर अंतकाल भी पा लेते हैं किन्तु जो आत्मा अरिहंत परमात्मा के शासन का मर्म पाकर जीवन अमृत सदृश बना लेते हैं वे आत्मा अंतकाल पा लेते हैं तो भी सदा अमर बनकर जागृति को स्मृति दिलाते हैं। वि.सं. १९९७ वर्ष का वह प्रसंग स्मरणीय बन गया जब राजस्थान के फलोदी नगर में जैन शासन संरक्षक महान् धुरंधर पू. आचार्यश्री लब्धिसूरीश्वर जी म.सा. अपने अनेक विद्वान् शिष्य परिवार से समलंकृत चातुर्मास हेत् विराजित थे। आपकी प्रतिभा, ओजस्वी वक्तृत्व कला, गांभीर्यता आदि अनेक गुणों से जनता संतुष्ट थी, प्रभावित थी और शासन चरणों में गजब की समर्पितता थी। इन दिनों मध्यान्ह समय में नगर के प्रबुद्ध लोग रेखचंद जी कोचर, लक्ष्मीलाल जी वैद आदि आचार्यश्री से विचार-विमर्श करते थे- शंका समाधान करते थे। इसी क्रम में एक दिन लक्ष्मीचंद जी वैद ने पू. आचार्यश्री से प्रश्न किया, "साहब जी, वर्तमान समय में जितने भी जैन साधुसंत हैं वे सभी त्यागी, साधक आदि गुणों से युक्त हैं फिर भी मैं इनमें से उत्कृष्ट त्यागी प्रभावक का विशिष्ट परिचय जानने की जिज्ञासा रखता हूँ।" सहज प्रश्न सुनकर वात्सल्यता एवं उदारता के धनी पू. आचार्यश्री लब्धि सूरीश्वर जी ने प्रसन्न मुद्रा में कहा कि अभी कच्छ वागड़ प्रदेश में विचर रहे आचार्यश्री कनकसूरीश्वर जी का संयम, तप, त्याग, क्रियादि उत्तमोत्तम और बेजोड़ है। __ आशा के विपरीत श्री लब्धिसूरीश्वर जी के मुखारबिंद से यह सुनकर सभी आश्चर्यचकित और मुग्ध थे प्रभुता के स्वामी पू. लब्धिसूरि जी द्वारा अपने से छोटे अन्य आचार्य के किए गए गुणानुवाद से। यह सुनते ही लक्ष्मीलाल जी वैद व उनके पुत्र मिश्रीलाल जी ने पुलकित हृदय से पू. आचार्यश्री कनकसूरी जी म.सा. के सानिध्य में दीक्षा अंगीकार करने का संकल्प लिया। समय बीतता गया। यह शरीर विनाशशील है रोगान्तक से घिरा हुआ है। लक्ष्मीलाल जी दमा रोग से पीड़ित हो गए जिसके कारण संयम लेने के दृढ़ संकल्प को पूरा नहीं कर पाए किन्तु उनकी आत्मा ने वैराग्य को वरण कर लिया था। निधन के पूर्व वे अपने पुत्र मिश्रीलाल जी को संयम जीवन स्वीकार करने के लिए दृढ़ बनाते गए। इसी समय क्रम में पू. आचार्यश्री लब्धिसूरीश्वर जी म. की गंभीर वाणी से प्रभावित हो अक्षयराज जी लूंकड़ ने संसार त्यागने का मनोरथ किया और अपने श्वसुर मिश्रीलाल वैद से परामर्श किया। अंततः वि.सं. २०१० में मिश्रीलाल जी वैद अपने सुपुत्र के साथ तथा अक्षयराज जी लूंकड़ अपनी पत्नी व दो सुपुत्रों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525041
Book TitleSramana 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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