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________________ १० उक्ति को देखते ही उनको स्मृति की दीवाल पर आलेखित कर देते थे। 'स्वाध्यायरतता' 'स्मृति-प्रभाव' और 'सूक्ष्म-मति' का जहाँ सुभग मिलन पाया जाता है वहाँ देव के गुरु बृहस्पति को भी लज्जान्वित बन जाना पड़ता है। स्वाध्याय रत होने के कारण आचार्यवर्य नये-नये ज्ञान से प्रतिदिन अभिवृद्ध होते जाते थे। बेजोड़ स्मृति होने के कारण ज्ञान आत्मसात् होता जाता था और सूक्ष्म-मति होने के कारण अपरिसीम शास्त्र रहस्य को चिंतन द्वारा प्रगटित करते थे। ज्ञान के विषय में तो आपका स्मृति वैभव बहुत ही चमत्कारिक समझा जाता था लेकिन सर्व सामान्य विषय में भी आपकी स्मृति शक्ति बहुत ही चमत्कारिणी थी। सामान्यतः हम बहुत काल के पीछे चिर परिचित आदमी को एवं घटनाओं को भी भूल जाते हैं लेकिन आचार्यवर्य सामान्य बालकों को भी कभी भूलने वाले नहीं थे। ढाई साल की उम्र से अंत तक का अनुभव आपको अंतिम दिन तक उपस्थित था। __कभी वंदनार्थी दूर देश से दस-पंद्रह साल बाद आते थे तो वे सोचते थे कि आचार्यवर्य उनको भूल गये होंगे लेकिन वंदन करने के प्रथम ही आचार्यवर्य उस महोदय को उसके नामसे बुलाते थे तो आनेवाला व्यक्ति मुग्ध हो जाता था। कितने लोग तो इसको चमत्कार ही मान बैठते थे। वस्तुत: वह चमत्कार नहीं अपितु स्वभाविक शक्ति थी। आप न कभी अवधान सीखे न कभी अवधान सीखने की जरूरत थी। हाँ, अवधानी को आपकी सहज स्मृतिशक्ति से बहुत कुछ प्राप्तव्य था। यौवन अवस्था में जब आप किसी मत की आलोचना करते थे तो पूर्वपक्ष का एवं उत्तरपक्ष का विधान किस पुस्तक में एवं किस पन्ने पर है वह भी आप बता देते थे तत्त्वन्यायविभाकर जैसे ग्रंथ के सूत्र आप रात्रि के समय में ही बनाते थे और दिन में जब समय मिलता तब किसी के पास लिखा देते थे अर्थात् पुस्तक पर ग्रंथलेखन तो पीछे होता था पहले आपके स्मृतिपट पर ही अंकित हो जाता था। शीघ्र कवि होने के कारण आप कई कृतियाँ अवसर पर बना देते थे और अवसर व्यतीत होते के काफी समय के बाद भी आप वह कृति परिचित सूत्रपाठ जैसे बोलते थे, तब सुननेवाला उलझन में पड़ जाता था। सामान्यत: वृद्धावस्था में मनुष्य के स्मृतिपट के दृश्य विलीन हो जाते हैं और वृद्धावस्था में जब आदमी रोग से परिवेष्ठित हो जाता है तब तो स्मृतिशून्य ही महसूस होता है। वृद्धावस्था में तो क्या भयानक रोगावस्था में भी आचार्यवर्य की स्मृति-शक्ति अत्यंत तेज पायी गयी। आपके कालधर्म (देहांत) के कुछ दिन पहले एक शिष्य (उ० जयंत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525041
Book TitleSramana 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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