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________________ स्वाध्यायरतता : मुनि जीवन का महनीय एवं प्रधान व्यवसाय है स्वाध्याय। 'स्व का अर्थ है आत्मा और 'अध्याय' का अर्थ है 'अत्यंत लाभ'। आत्मा का (आत्म गुणों का) जिससे अत्यंत लाभ हो इसका नाम है 'स्वाध्याय'। शास्त्र में इस स्वाध्याय के पांच प्रकार बताये गये हैं, जो मुनि जीवन के उत्थान के प्रत्येक क्षेत्र को आवरित कर लेता है। आप जीवन के प्रारंभ काल से अत्यंत स्वाध्याय प्रेमी थे। आगम एवं शास्त्र तो आप कंठस्थ करते ही थे। लेकिन वाचन समय में कोई भी अच्छी चीज आ गयी तो आप कंठस्थ ही कर लेते थे। जब आप व्याख्यान में कोई भी शास्त्रीय चीज पेश करते थे तब फौरन ही शास्त्रपाठ बोलते थे। इस स्वाध्यायरतता ने ही आपको अलौकिक योगी एवं परमवैराग्यवान बनाया। शास्त्र स्वाध्याय का तात्कालिक फल बताते हुए धर्मदासगणि महाराज कहते हैं कि "सज्झाये वट्टमाणस्म खणे खणे जाय वेरग्गं" स्वाध्याय वर्तित आत्मा में प्रतिक्षण वैराग्य पैदा होता जाता है। आप के लिये स्वाध्याय एक व्यसन बन चुका था। जब मोतियाबिन्द से आपके नयनों की ज्योति कुछ कम हुई थी, तो पढ़ना कठिन हो गया, बिना पढ़े नया ज्ञान कैसे मिले? अपने शिष्यों से भंडारस्थ बड़े-बड़े अक्षरोंवाली एक प्रति मंगवाई और एक-एक अक्षर पर दृष्टि न्यास करते हुए आप शास्त्र को मुँहजवाब करने लगे। यद्यपि आप बड़े ग्रंथकार भी थे लेकिन परमात्मा की वाणी तो मुँह ज़बान करनी ही चाहिये यह आपका आग्रह था। जब युवावस्थ स्वस्थ साधु या श्रावक एक-महान् तत्त्ववेत्ता का यह महान् पुरुषार्थ देखते थे तब महान् मूक उपदेश प्राप्त करते थे और इस महान् प्रेरणा स्त्रोत से थोड़ी बूंदे मिलाकर जीवन सफल बनाने के लिये कृतप्रतिज्ञ बनते थे। ज्यों-ज्यों देह शिथिल होता गया, त्यों-त्यों आपकी स्वाध्याय तमन्ना गाढ़ बनती गयी। उपाध्याय यशोविजयजी महाराज का अध्यात्मसार आपने पूर्वावस्था में कंठस्थ ही कर लिया था और अंतिम अवस्था में उत्तराध्ययन को कंठस्थ करना प्रारंभ कर दिया था। इस अवस्था में आप योग्य शिष्यों के सिर पर उत्तरदायित्व देकर निवृत्त हो गये थे। प्रत्येक दर्शनार्थी आपके 'धर्मलाभ' के मधुर स्वर से पवित्र हो जाता था और बहत अधिक हो तो दो चार मीठे वाक्य सुनने का अवसर मिल जाना इससे अतिरिक्त इस अवस्था में आप अधिक कुछ बातचीत नहीं करते थे, कारण इस उम्र में भी आपको स्वाध्यायविक्षेप नापसंद था। रात्रि के दो-तीन बजे यदि कोई मुनि नींद से जागृत होते थे तो आपको स्वाध्याय करते हुये देखकर दंग हो जाते थे। स्मृति-वैभव : प्राय: बाह्य विश्व को दीर्घकाल आत्मसात् करने का नाम है स्मृति। आचार्यवर्य की बुद्धि बचपन से बड़ी तेज थी। आपका व्याख्यान प्रायः हजारों सुयुक्तियों से प्रचुर होने का यही कारण था कि आप कोई भी अभिनव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525041
Book TitleSramana 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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