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________________ के परमाराधनीय गुरु बन चुके थे। आपके उपदेशामृत का पान कर सैंकड़ों महानुभाव महाव्रतमय एवं विरक्त जीवन के आराधक बन गये थे। पंजाब की भूमि में प्रत्येक व्याख्यान में जब ५००-५०० मनुष्य मांसाहार और व्यसन का त्याग करते थे तब जैन समाज गौरव सहित लज्जान्वित बन जाता था। गौरव आपके गुरु पर करते थे और खुदकी त्याग शक्ति की अल्प ताकत को देखते लज्जान्वित हो जाते थे। वे सोचते थे शायद गुरु महाराज कह देंगे " आजन्म मांसाहारी ने मांस छोड़ा और आप कंदमूल भी नहीं छोड़ते?" कई महानुभावों ने आपके उपदेशामृत धारा के प्रभाव से मिथ्या धर्म का त्याग कर दिया, वीतराग धर्म-जिनेश्वर धर्म की शरण स्वीकार किया। जीवन प्रारंभ से अंत तक आचार्यवर्य ने वक्ततृत्व धारा से शासन की परमोन्नति करके हजारों के अंधकारमय जीवन में नवदीप प्रगटित कर दिया था। वादविजय : सैद्धांतिक वक्ता को सिद्धांत समृद्ध और सिद्धांत समर्थक बनना पडता है। समर्थन के प्रवाह में जो अवरोध होता है उनको दूर करना स्वाभाविक बन जाता है। आपके लिये भी कुछ ऐसा हुआ। आपका सिद्धांत समर्थन कितनेक लोगों को रुचिकर नहीं लगा अतः एवं चर्चा-विचारणा बढ़ने लगी। जब (पराभूत) लोगों को इससे सान्त्वना प्राप्त नहीं हुई तो आचार्यवर्य को शास्त्रार्थ करने का आह्वान दिया गया। यद्यपि आचार्यश्री पर-पराभाव में आनन्द लेनेवाले नहीं थे, लेकिन सत्य-सिद्धांत के उपहास का प्रतिकार करने का संपूर्ण सामर्थ्य रखते थे। अत एव आये हुये आह्वाहनों को जीवन की उदित अवस्था में ही स्वीकार करना पड़ा। ___संयम पर्याय केवल आठ साल का था और जीवन पर्याय था मात्र २७ साल। यह उम्र में आपने गीर्वाणगिरा में (संस्कृत भाषा में) वाद् विजय प्राप्त किया। ३५ साल में चार बार ऐसा प्रसंग आया और प्रत्येक में आप विजयी हुए। वाद या शास्त्रर्थ आज लगभग लुप्त होता जाता है। आज का नि:सात्त्विक वातावरण देखने से तो लगता है कि जैन शासन के वादविजेता की नामावली में शायद यह नाम अन्तिम ही रह जाय। शास्त्रार्थ करनेवालों के लिये शास्त्राकारों ने कहा है 'शास्त्रार्थ करनेवाले उदार, सत्य का आग्रही, कीर्ति कामना से दूर रहनेवाला होना चाहिये।' आप सत्य के संपूर्ण समर्थक थे, ऐसा होते हुए भी आपकी अनेकांतात्मक उदारता बहुत भव्य थी। एक वादी का अभिमत था कि वेद अनादिकालीन हैं उनके बनानेवाले कोई नहीं। इस विषय पर वाद करते हये वादी पराभूत हो गया वाद की समाप्ति में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525041
Book TitleSramana 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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