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________________ महासभाओं में लोकप्रियता प्राप्त करनेवाले सिद्धान्तशून्य वक्ता उपस्थित होते थे उन सभाओं में भी आप सिद्धांतनिष्ठा को जन-मन में प्रविष्ट कराके सर्वोत्तम प्रीति के पात्र बनते थे। प्रख्यात् राजनेताओं की सभामें भी आपके सैद्धांतिक प्रवचनों के लिये जनता आतुर रहती थी। इतना ही नहीं, आपके वक्तव्य से प्रसन्न हो जाती थी। संयम जीवन के प्रारंभकाल से ख्यातनाम आचार्यवर्य को संयमजीवन के बारहसाल पूर्ण करने पर “जैन रत्न व्याख्यान-वाचस्पति' के महनीय पद से आपको गुरुमहाराज ने विभूषित किया। यह पदप्रदान-महोत्सव मनाने का सौभाग्य ईडर नगर (गुजरात) को प्राप्त हुआ था। आपकी सैद्धांतिक व्याख्यानधारा से कई बार विचार संघर्ष पैदा हुए। फलत: शास्त्रार्थ' हुए, ‘वादविवाद' हुए। इस विषय को हम आगे के प्रकरण में देखेंगे। आप. जन्मत: गुजराती होने के कारण गुजराती में तो व्याख्यान देते ही थे, लेकिन हिन्दी आपकी गुरुभाषा थी। ‘संस्कृत' आपकी अध्ययन की भाषा थी। आप मातृभाषा, गुरुभाषा (हिन्दी) और शिक्षाभाषा तीनों में प्रवाहबद्ध व्याख्यान देते थे। आप की हिन्दी भाषा, पंजाबी-फारसी-उर्दू और संस्कृत चारों भाषा के ज्ञान से अत्यंत पुष्ट बनी थी। यद्यपि आप कई सालों से व्याख्यान देना छोड़ कर आत्मकल्याण में ही संलग्न हो गये थे। फिर भी द्वादशारनयचक्र नामक महान् न्याय ग्रंथ के उद्घाटन समारोह में (२९-३-५९) आपको संस्कृत भाषा में व्याख्यान देने की पं. विक्रम विजयजी म. ने विज्ञप्ति की। तब आपने संस्कृत वाक्प्रवाह से सभी को आश्चर्यमुग्ध बना दिया। ग्रंथ उद्घाटनकार भारत के तत्कालीन उप राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन् ने कहा "मैंने आपका दर्शन करके प्राचीन ऋषियों के साक्षात्कार का परमानंद प्राप्त किया है।" अर्धमागधी और प्राकृत आप के प्राणतुल्य आगम-सिद्धांत की भाषा थी। गुजराती-हिन्दीभाषा के आपके वक्तव्य में कविसहज जो प्रासानुप्रास अलंकार प्रवहित था, वह अब जनता को कब सुनने मिलेगा यह प्रतीक्षा का विषय बन गया है। आज भी जनता उस काव्यमय प्रवचन को याद करती है। आपकी प्रवचन शैली केवल वैभवपूर्ण नहीं अपितु चैतन्यपूर्ण भी थी। परिणामतः जैन-जैनेतर समाज में अनन्य चैतन्य प्रगट हुआ था। यद्यपि आप किसी आंदोलन के प्रवर्तक नहीं थे, फिर भी लाखों लोगों को आपने आंदोलित कर दिया था। यद्यपि आप जैनाचार्य थे, फिर भी वक्तव्य प्रभाव से सामान्य जनता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525041
Book TitleSramana 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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