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का प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में उल्लेख मिलता है। श्री पूरनचन्द नाहर ने इस लेख की वाचना दी है, २१ जो इस प्रकार है :
सं० १४९७ वर्षे फाल्गुन सुदि ५ गुरौ श्री ऊकेशवंशे शंखवालगोत्रे सा० आसराज भार्या पारस पुत्र खेतापातादियुतैः श्री बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनराजसूरिपट्टे श्रीजिनचंद्र (?) सूरिभिः ।।
सुपार्श्वनाथ जिनालय, जैसलमेर में संरक्षित एक पंचतीर्थी प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख
चूंकि खरतरगच्छ की लघुशाखा को छोड़कर जिनराजसूरि और जिनचन्द्रसूरि के बीच गुरु-शिष्य का सम्बन्ध खरतरगच्छ की परम्परा में अन्यत्र कहीं नहीं मिलता अतः यदि हम उक्त लेख को सम्पादक की भूल मानते हुए वि०सं० १४९७ के स्थान पर वि०सं० १५९७ का मान लें, तो सारी विसंगतियों का स्वतः ही निराकरण हो जाता है।
वि०सं० १५९५ के एक प्रतिमालेख में प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में उल्लिखित खरतरगच्छीय जिनशीलसूरि के गुरु का नाम जिनचन्द्रसूरि बतलाया गया है । २२ जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं वि०सं० १५६६ के दो प्रतिमालेखों में प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में उल्लिखित जिनराजसूरि के शिष्य जिनचन्द्रसूरि खरतरगच्छ की लघुशाखा से सम्बद्ध सिद्ध हो चुके हैं, अतः इस लेख में उल्लिखित जिनशीलसूरि के गुरु जिनचन्द्रसूरि समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर जिनराजसूरि के शिष्य जिनचन्द्रसूरि से अभिन्न माने जा सकते हैं
जिनतिलकसूरि (वि०सं० १५०८-२८) प्रतिमालेख
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जिनराजसूरि (वि० सं० १५६२) प्रतिमालेख
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जिनचन्द्रसूरि (वि०सं० १५६६ - १५९७) प्रतिमालेख
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जिनशीलसूरि (वि० सं० १५९५ ) प्रतिमालेख
उत्तमकुमारचौपाई २३ के रचनाकार महीचन्द भी खरतरगच्छ की इसी शाखा से सम्बद्ध थे। अपनी कृति की प्रशस्ति में उन्होंने जिनप्रभसूरि की परम्परा में हुए जिनराजसूरि का प्रशिष्य एवं कमलचन्द्रसूरि का शिष्य बतलाया है । २४ ग्रन्थ की प्रशस्ति के अनुसार यह कृति जवणपुर (वर्तमान जौनपुर) में बाबर के पुत्र हुमायूँ के शासनकाल में वि० सं० १५९९ / ई० सन् १५३५ में रची गयी । २५
इसे तालिका द्वारा निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है
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