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सि९ (शि०) उ० श्रीहरिकलश सि (शि)ष्य वा० श्रीसहजकलशगणि सि० (शि०) भक्तिलाभ मतिलाभ। भावलाभ परिवारसहितेन यात्राकृता आदिनाथस्य सु(शु) भं भवतु।। श्रीमाल न्याती विनालियागोत्रे चौ० योधा पुत्र जगराज सहितेन यात्रा कृता: (ता)।।
प्रज्ञापनाटीका की प्रशस्तिगतगुर्वावली तथा आबू के उक्त स्तम्भलेख में उल्लिखित आनन्दराज के शिष्य अभयचन्द्र का गणदत्तकथा और रत्नकरण्ड आदि कृतियों के रचनाकार के रूप में भी उल्लेख मिलता है। १२
जैसा कि हम देख चुके हैं चारित्रवर्धन द्वारा दी गयी रघुवंशशिष्यहितैषिणीवृत्ति की प्रशस्तिगत गुर्वावली में जिनहितसूरि के पट्टधर के रूप में जिनसर्वसूरि का नाम मिलता है। इनके द्वारा रचित न तो कोई कृति मिलती है और न ही किसी प्रतिमा के प्रतिष्ठापक के रूप में इनका उल्लेख मिलता है। यही बात इनके शिष्य एवं पट्टधर जिनचन्द्रसूरि ‘द्वितीय' के बारे में भी कही जा सकती है।
जिनचन्द्रसूरि 'द्वितीय' के पट्टधर जिनसमुद्रसूरि हुए, जिनके द्वारा रचित रघुवंशटीका, कुमारसम्भवटीका आदि कृतियां प्राप्त होती हैं। १३ इनके बारे में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती। जैसा कि चारित्रवर्धन द्वारा दी गयी प्रशस्तिगत गुर्वावली में हम देख चुके हैं जिनसमुद्रसूरि के पट्टधर के रूप में जिनतिलकसूरि का नाम मिलता है। वि० सं० १५०८ से १५२८ के मध्य प्रतिष्ठापित खरतरगच्छ से सम्बद्ध कुछ सलेख जिनप्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। जिन पर प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में जिनतिलकसूरि का नाम मिलता है। यद्यपि इन लेखों में न तो इनके गुरु का नाम मिलता है और न ही लघूशाखा से सम्बद्ध होने का ही उल्लेख है फिर भी उक्त प्रतिमाओं के प्रतिष्ठापक जिनतिलकसूरि को समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर जिनसमुद्रसूरि के पट्टधर जिनतिलकसूरि से अभिन्न मानने में कोई बाधा दिखाई नहीं देती। वि०सं० १५०८/ई०स० १४५२ में इन्होंने दशपुर में सिन्दूरप्रकरवृत्ति की रचना की। इसकी प्रशस्ति में इन्होंने स्वयं को जिनप्रभसूरि की परम्परा में हुए जिनचन्द्रसूरि का प्रशिष्य एवं जिनसमुद्रसूरि का शिष्य बतलाया है :
जिनप्रभसूरि
जिनचन्द्रसूति
जिनसमुद्र
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