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________________ ३८ ।।सम्यक्त्व पच्चीसी।। 'श्री पार्श्वनाथाय नमः' जह सम्मत्त' सरूवं, परूवियं वीर-जिण-वरिंदेण। तह कित्तणेण तमहार, थुणामि सम्मत्तं सुद्धि कए।।१।। जिस प्रकार जिनवर महावीर ने सम्यक्त्व का स्वरूप प्रतिपादित किया है, उसी प्रकार उसका शुद्ध रूप कथन करने के लिए मैं उनकी कीर्तिपूर्वक स्तुति करता हूँ। सामी अणाई अणंते, चउगई संसार घोर कंतारे। मोहाई कम्म गुरुविई, विवाग वसउ भमइ जीवो।।२।। हे स्वामी (भगवान्)! यह जीव (आत्मा) अनादि अनन्तकाल से चतुर्गतिमयी संसाररूप घने (दुर्गम) जंगल में मोहादिक कर्म के भार से सुख-दुःख रूप कर्मविपाक के आधीन हो, भ्रमण कर रहा है। __पल्लोवलंमाइ अहा पवत्तकरणेण को विजई कुणइ। पलिया संख भागूण, कोडाकोडी अयर विईसेसं।।३।। पल्योपम के असंख्यातवें भाग हीन एक-एक क्रम से स्थिति एक पल्यहीन अन्तः कोड़ा-कोड़ी सागरोपम स्थिति को अन्तर्मुहूर्त तक बांधता है- ऐसे अन्तर्मुहूर्तकाल का अधःप्रवृत्तकरण कौन पार (विजयी) कर पाता है? अर्थात् विरले ही। तत्थ वि गट्ठी घण राग दोस, परिणयमई अभिदंतो। गंट्ठीय जीवो विह हा, न लहई तुह दंसण नाह।।४।। ___अहो! आश्चर्य है कि यह जीव महावज्र के समान राग-द्वेषरूपी घनी (दृढ़) ग्रन्थि को नहीं भेदता है (अर्थात् समाप्त नहीं करता है)। इसलिए हे नाथ! वह आपके बताये दर्शन (सम्यग्दर्शन) को प्राप्त नहीं कर पाता है। पहिय पिपीलिभ्य नाएणं, को विपज्जत सन्निपंचिदीर। भव्वो अवट्ट-पुग्गल, परियट्ट उ सेस संसारे।।५।। जैसे कोई पथिक (राही) रास्ता भूलकर चींटी की तरह घूमता रहता है। उसी . १. समत्त, २. तमहा, ३. समत्तं - ये शब्द मूल पाण्डुलिपि में हैं। ४. विवाग-सुख-दुःखादि भोग रूप कर्मफल, कर्मफल का अनुचिंतन। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525040
Book TitleSramana 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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