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णत्थि णिव्वाणं।" जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है, वे वस्तुत: भ्रष्ट ही हैं। भावपाहुड में कहा है
जह तारयाण चंदो, मयराओ मयउलाण सव्वाणं।
अहिओ तह सम्मत्तो रिसिसावयदुविहं धम्माणं।।१४२।। अर्थात् जिस प्रकार ताराओं में चन्द्र और पशुओं में सिंह प्रधान है उसी प्रकार मुनि और श्रावक दोनों प्रकार के धर्मों में सम्यक्त्व प्रधान है। इसी तरह आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्डश्रावकाचार में सम्यक्त्व की महत्ता बतलाते हए लिखा है
न सम्यक्त्व समं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि।
श्रेयोऽ श्रेयश्च मिथ्यात्व समं नान्यत्तनूभृताम्।।३४।। अर्थात् तीन काल और तीन जगत् में जीवों के लिए सम्यक्त्व के समान कल्याणकारी और कुछ भी नहीं है तथा मिथ्यात्व के समान अकल्याणकारी भी और अन्य नहीं है। भगवतीआराधना (गाथा ७३६-७३८) में बताया गया है- जिस प्रकार नगर में द्वार तथा वृक्ष में मूल (जड़) प्रधान है उसी प्रकार ज्ञान, चारित्र, वीर्य व तपइन चार आराधनाओं में एक सम्यक्त्व की प्रधानता है। इसी तरह उत्तराध्ययन २८.१४-१५, बृहत्कल्प. १३४, प्राकृतपञ्चसंग्रह १.१५९, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित १.१.१९३, धर्मसंग्रहणी ४.३१-३२ आदि ग्रन्थ भी द्रष्टव्य हैं।
इस तरह विभिन्न आचार्यों ने अनेक ग्रन्थों में सम्यग्दर्शन की महत्तास्वरूप विस्तृत व्याख्यायें की हैं। यह आत्मविकास का प्रथम सोपान है। श्रद्धा और विशुद्ध परिणामों का उत्तरोत्तर विकास-ह्रास के क्रम की दृष्टि से इसके अनेक भेद-प्रभेद भी आचार्यों ने बतलाये हैं। साथ ही आत्मा के साथ इसकी स्थिति,काल,समय आदि का सूक्ष्मातिसूक्ष्म वर्णन किया है। जैन ग्रन्थों में आत्मविकास के चौदह सोपानों (गुणस्थानों) के साथ सम्यग्दर्शन की स्थिति अर्थात् आत्मा से परमात्मा बनने की प्रक्रिया का अनुपम मनोवैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत किया गया है।
___ कर्मों और कषायों के जंजाल से छूटने का सम्यग्दर्शन के बिना अन्य कोई उपाय नहीं। अत: इसे प्राप्त करने के लिए, इसकी योग्यतानुकूल गुणों का अपने आपमें विकास करना श्रेयस्कर है। मिथ्यात्व का सर्वथा त्याग इसकी सुपात्रता की अनिवार्य शर्त है।
वस्तुत: सम्यग्दृष्टि जीव दृढ़ श्रद्धान एवं विवेकवान् और सजग रहने वाला होता है। उसे कोई विचलित नहीं कर सकता, वह जीवन-मरण से भय नहीं खाता। सम्यग्दर्शन को विवेकसूर्य माना गया है, इसके प्रकाश से विपरीत श्रद्धान टिक ही नहीं पाता अत: सम्यग्दर्शन की नींव पर ही मोक्षमहल की सत्ता है। सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति तत्त्वार्थसत्र के प्रथम अध्याय के तीसरे सूत्र के अनुसार दो प्रकार की बतलायी गयी है
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