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जो कहा उसको आधार मानकर गणधरों और स्थविरों ने आगम की रचना की। आचार आदि अंग सूत्रों की रचना एक योजनाबद्ध ढंग से की गई थी। समवायांग और नन्दी में उपलब्ध द्वादशांगी के विवरण से इस तथ्य की पुष्टि होती है।३३ स्थानांग में परवर्ती विषयों का भी समावेश हुआ है-- वह इस तथ्य से भी प्रमाणित होता है कि स्थानांग के पञ्चम स्थान के तृतीय उद्देश में ज्ञान के पाँच प्रकार बताये गये हैं तथा द्वितीय स्थान के प्रथम उद्देशक में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप ज्ञान के दो भेद बताये गये हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष के सन्दर्भ में इतना तो स्पष्ट है कि जैन ज्ञानमीमांसा में इनका समावेश परवर्ती है।
उपलब्ध आगम ग्रन्थों के आधार पर यह तो कहा जा सकता है कि भगवती में प्राप्त ज्ञान का भेद-प्रभेद उसके विकास का प्रथम चरण है तथा स्थानांग में वर्णित भेद-प्रभेद द्वितीय चरण। काल की दृष्टि से भी यह स्पष्ट है, क्योंकि भगवती २-३री शताब्दी तथा स्थानांग ४थी शताब्दी का ग्रन्थ माना जाता है। नन्दी में वर्णित ज्ञान के भेद-प्रभेदों का स्थानांग के भेद-प्रभेदों से अन्तर यही है कि नन्दी में मतिज्ञान को प्रत्यक्ष
और परोक्ष-उभय माना गया है। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि पंचज्ञान का यह विभाजन महावीर से पूर्व पार्श्वनाथ की परम्परा का है, क्योंकि केशीकुमार पार्श्वनाथ की परम्परा के साधु माने जाते हैं। ३४ पं० मालवणिया जी के अनुसार उत्तराध्ययन के २३वें अध्ययन से स्पष्ट है कि भगवान् महावीर ने आचार-विषयक कुछ संशोधनों के अतिरिक्त पार्श्वनाथ के तत्त्वज्ञान में विशेष संशोधन नहीं किया। यदि भगवान् महावीर ने तत्त्वज्ञान में भी कुछ नयी कल्पनाएँ की होती, तो उनका निरूपण भी उत्तराध्ययन में अवश्य होता।३५
इस प्रकार हम देखते हैं कि ज्ञान के मुख्यत: पाँच ही प्रकार हैं। विकासक्रम की दृष्टि से देवर्धिगणी के काल तक ज्ञान की पृथक्-पृथक् भूमिकाएँ बन गयी थी, क्योंकि भगवती में प्रत्यक्ष और परोक्ष का विभाग प्राप्त नहीं होता है। इसी प्रकार स्थानांग में प्रत्यक्ष के अन्तर्गत इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विभाग नहीं है। यह विभाग केवल नन्दी में प्राप्त होता है।
दिगम्बर परम्परा में भी ज्ञान के पाँच प्रकार ही स्वीकृत हैं।३६ किन्तु वहाँ ज्ञान का विभाजन कई अपेक्षा दृष्टियों से किया गया है। प्रत्यक्ष और परोक्ष की अपेक्षा से ज्ञान के दो भेद हैं।३७ पुन: परोक्ष के दो-मतिज्ञान व श्रुतज्ञान तथा प्रत्यक्ष के तीनअवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान भेद किये गये हैं। ३८ राजवार्तिक में ज्ञान के प्रकार को कुछ अलग ढंग से निरूपित किया गया है। उसके अनुसार सामान्य रूप से ज्ञान एक है, प्रत्यक्ष व परोक्ष के भेद से दो प्रकार का है, द्रव्य-गुण-पर्याय रूप विषयभेद से तीन प्रकार का है। नामादि निक्षेपों के भेद से चार प्रकार का है। मति आदि
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