SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • 'उपायो न्यासो उच्यते' अर्थात् नामादिक के द्वारा वस्तु में भेद करने के उपाय को न्यास या निक्षेप कहते हैं।" धवला में ही कहा गया है कि- 'संशये विपर्यये अनध्यवसाए वा स्थित तेभ्योऽपसार्य निश्चये क्षिपतीति निक्षेपः' अर्थात् संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय में अवस्थित वस्तु को उनसे निकालकर जो निश्चय में क्षेपण करता है उसे निक्षेप कहते हैं। नयचक्र के अनुसार 'जुत्तीभुजुत्तमग्गे जं चउभेयेण होई खलु ठवणं। वज्जे सदि णामादिसु तं णिक्खेवं हवे समये' अर्थात् युक्तिमार्ग से प्रयोजन वश जो वस्तु का नाम आदि ४ भेदों में क्षेपण करे उसे आगमों में निक्षेप कहा गया है। निक्षेप के भेद या प्रकार निक्षेप के मुख्य रूप से चार प्रकारों का उल्लेख प्राप्त होता है- (१) नाम निक्षेप, (२) स्थापना निक्षेप, (३) द्रव्य निक्षेप एवं (४) भाव निक्षेप। षट्खण्डागम एवं धवला में सर्वत्र छः नयों की चर्चा की गयी है तथा छ: निक्षेपोंके आश्रय से प्रत्येक प्रकरण की व्याख्या की गयी है। निक्षेप को अनुयोगद्वार भी कहा गया है। अनुयोगद्वार के ज्ञान अध्ययन में निक्षेप के ओघनिष्पन्ननिक्षेप, नामनिष्पन्ननिक्षेप और सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेप- इस प्रकार तीन भेद किये गये हैं। ओघनिष्पन्ननिक्षेप, अध्ययन, अक्षीण, आय और क्षपणा के रूप में चार प्रकार का है। अध्ययन के नामाध्ययन, स्थापनाध्ययन, द्रव्याध्ययन और भावाध्ययन- ये चार भेद हैं। अक्षीण के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-ये चार भेद हैं। इन चार में भावाक्षीणता के आगमतः भावाक्षीणता और नोआगमत्त: भावाक्षीणता दो रूप हैं। आय के नाम, स्थापनादि चार भेद हैं। ज्ञान, दर्शन और चारित्र का लाभ प्रशस्त आय है। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि की प्राप्ति अप्रशस्त आय है। क्षपणा के नाम, स्थापनादि चार भेद हैं। क्षपणा का अर्थ निर्जरा, क्षय है। क्रोधादि का क्षय होना प्रशस्त क्षपणा है। ज्ञानादि का नष्ट होना अप्रशस्त क्षपणा है। ___ ओघनिष्पन्न निक्षेप के विवेचन के प्रश्चात् नामनिष्पन्ननिक्षेप का विवेचन करते हुए कहा है- जिस वस्तु का नामनिक्षेपनिष्पन्न हो चुका है उसे नामनिष्पन्न निक्षेप कहते हैं, जैसे सामायिक। इसके भी नामादि चार भेद हैं। भावसामायिक का विवेचन विस्तार से किया है और भावसामायिक करने वाले श्रमण का आदर्श प्रस्तुत करते हुए बताया हैजिसकी आत्मा सभी प्रकार से सावध व्यापार से निवृत्त होकर मूलगुणरूप संयम, उत्तरगुणरूप नियम तथा तप आदि में लीन है उसी को भावसामायिक का अनुपम लाभ प्राप्त होता है। जो त्रस और स्थावर सभी प्राणियों को आत्मवत् देखता है, उनके प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525040
Book TitleSramana 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy