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________________ महावीर के सिद्धान्त : वर्तमान परिप्रेक्ष्य : ८९ और क्षिप्रता प्रदान की थी। इसलिए उनके, अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के सिद्धान्त निश्चय ही आधुनिक परिप्रेक्ष्य में अतिशय उपयोगी और प्रासंगिक हैं। वर्तमान दैनन्दिन जीवन-व्यवहार में भी महावीर का अपरिग्रह-सिद्धान्त अधिक प्रासंगिक है। अपरिग्रह के सिद्धान्त को चरितार्थ करने के लिए इच्छाओं को नियन्त्रित करना या परिग्रह को परिमित करना अत्यन्त आवश्यक है। परिमाण से अधिक की प्राप्ति का उपयोग अपने लिए नहीं, वरन् समाज के लिए होना चाहिए। यह दृष्टि जिस मनुष्य में विकसित हो जाती है, उसमें शेष सृष्टि के साथ सहानुभूति, प्रेम, एकता, समता और सेवा का भाव सहज ही उत्पन्न हो जाता है। इस भावना के उत्पन्न होने पर अहिंसा, अनासक्ति, वैचारिक उदारता और अपरिग्रह की साधना का विकास स्वत: होता रहता है। धर्म के तहत, राष्ट्रीय स्तर पर अपरिग्रह का विचार आज के युग की अपरिहार्य आवश्यकता है। सभी धर्मों और दर्शनों में अपरिग्रह की वृत्ति को सच्ची शान्ति और अखण्ड आनन्द का मूल उत्स माना गया है। ज्ञातव्य है, वस्तुओं का संग्रह परिग्रह नहीं है, उन पर स्वामित्व परिग्रह है; विचारों का वैविध्य और बाहल्य परिग्रह नहीं है, उनके प्रति कदाग्रह अथवा दुराग्रह ही परिग्रह है। सच तो यह है कि आग्रह से रहित परिग्रह जीवन और समाज के प्रति एक विकासवादी दृष्टिकोण है। - भगवान महावीर के सिद्धान्त के अनुसार, मुक्तिलाभ की चेष्टा निःस्वार्थता और नैतिकता की आधारशिला है। हिंसा, परिग्रह और एकान्तवाद से मुक्त होकर समग्र रूप से निःस्वार्थ और नैतिक हो जाना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। केवल अपने शरीर की रक्षा करना क्षुद्र व्यक्तित्व का लक्षण है। इसलिए व्यक्तित्व को क्षुद्रता से मुक्त कर अनन्त विस्तार में विलीन कर देना महावीर के सिद्धान्त का प्रमुख लक्ष्य है। महावीर के सिद्धान्त से समसामयिक परिप्रेक्ष्य में हमें यह दृष्टि प्राप्त होती है कि जीवन का अतिक्रमण अर्थ के स्तर पर ही नहीं, भावना और विचार के स्तर पर भी होता है। अपने विचारों को दूसरों पर लादकर उन्हें तदनुकूल चलने के लिए बाध्य करना भयावह हिंसा है। है तो यह भावहिंसा, किन्तु इसका दुष्प्रभाव द्रव्यहिंसा से भी अधिक तीव्र होता है और भावहिंसा ही अन्ततोगत्वा द्रव्यहिंसा में बदल जाती है। विशेषतया धर्म के नाम पर इस प्रकार की हिंसा बहुधा होती है। भारतीय परमाणुशक्ति-परीक्षण भले ही आत्मरक्षा के नाम पर किया गया है, परन्तु यह मूलत: भावहिंसा के द्रव्यहिंसा में परिणमन का ही एक रूपान्तर है। भारत में आज भी साम्प्रदायिक उन्माद यदा-कदा फूट पड़ता है। धर्म के नाम पर ही यह देश खण्डित हुआ और घोर लज्जाजनक संहारलीलाएँ हुई। कहना न होगा कि साम्प्रदायिक संकीर्णता वैचारिक असहिष्णुता को उभारता है। इस सन्दर्भ में महावीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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