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गुरु का स्वरूप : गुरुतत्त्वविनिश्चय के विशेष सन्दर्भ में : ८५ २८. उक्त व्रत तप:शील संयमादिधरो गणी।
नमस्य स गुरू साक्षात्तदन्यो न गुरुर्गणी।। - पञ्चाध्यायी, पं. राजमल्ल, श्री
गणेश प्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, प्रथमावृत्ति, १९५०, २/६५६. . २९. वही, उत्तरार्ध, २/६४८. ३०. वसुनन्दिश्रावकाचार, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, ३८८-३८९. ३१. भगवतीआराधना, सखाराम दोसी, सोलापुर, १९३५, २७३-२७४. ३२. वही, ४०२. ३३. वही, उद्धृत— जैन वाङमय में शिक्षा के तत्त्व, डॉ० निशानन्द शर्मा, प्राकृत,
जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली, पृ० ४४. ३४. गुरुतत्त्वविनिश्चय, १/३. ३५. वही, गाथा-१५ की टिप्पणी ३६. एवं बहुगुरुपूजा, ववहारा बहुगुणा य णिच्छयओ।
___ एगम्मि पूइअम्मी, सत्वे ते पूइआ हुति।। - वही, १/१७, ३७. ववहारो ववहारी, ववहरिअव्वं च एत्थ णायत्वं।
नाणी नाणं नेयं, नाणाम्मि परूविअम्मि जहा।। - वही, २/२. . ३८. सद्धापोहासेवणभावेणं जस्स एस ववहारो।
सम्मं होइ परिणओ, सो सुगुरु होइ जगसरणं।। - वही, २/३३६. ३९. इण्हिं पुण वत्तव्वं, ण णाममित्तेण होइ गुरूभत्ती।। . चउसु वि णिक्खेवेसुं, जं गेज्झो भावणिक्खेवो।। - वहीं, १/२.
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