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________________ आचार्य हरिभद्रसूरिप्रणीत उपदेशपद : एक अध्ययन : ६१ प्राप्ति, स्वाध्याय, यत्नाचार, उत्सर्ग-अपवाद लक्षण से सभी नयों द्वारा अभिमत तात्त्विक स्वरूप, दुषमाकाल में चरित्र की स्थिति आदि विषयों का प्रतिपादन विभिन्न आख्यानों द्वारा विस्तृत रूप में किया गया है। __ धर्माचरण का निरतिचार पालन करने से श्रेय पद की प्राप्ति होती है। इस सम्बन्ध में आचार्य हरिभद्र ने शंख कलावती का बड़ा आख्यान दिया है। टीकाकार ने इस आख्यान का ४५१ आर्या छन्दों में विस्तार किया है।४३ इसी प्रसंग में शक्कर और आटे से भरे हुए बर्तन के उलट जाने, खांड मिश्रित सत्तू और घी की कुण्डी उलट जाने एवम् उफान से निकले हुए दूध के हाथ पर गिर जाने से किसी सज्जन पुरुष के कुटुम्ब की दयनीय स्थिति का बड़ा ही सजीव चित्रण वृत्तिकार ने किया है। धर्म, सूख, पाण्डित्य आदि का प्रश्नोत्तर रूप में स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहा है कि - धर्म क्या है? उत्तर--- जीव दया। सुख क्या है? -उत्तर - आरोग्य। स्नेह क्या है? उत्तर - सदभाव। पाण्डित्य क्या है? उत्तर - हिताहित का विवेक। विषम क्या है? उत्तर - कार्य की गति। प्राप्त करने योग्य क्या है? उत्तर --- मनुष्य द्वारा गुण ग्रहण। सुख से प्राप्त करने योग्य क्या है? उत्तर - सज्जन पुरुष। तथा कठिनता से प्राप्त करने योग्य क्या है? उत्तर --- दुर्जन पुरुष।४४ __आगे अनेक विषयों को सोदाहरण प्रस्तुत करते हुए धर्मरत्न प्राप्ति की योग्यता को समझाया है।४५ विषयाभ्यास में शक और भावाभ्यास में नरसन्दर४६ की तथा शुद्धयोग में दुर्गत नारी और शुद्धानुष्ठान में रत्नशिख की कथा दी है।४७ ग्रन्थ का उपसंहार करते हुए आचार्य हरिभद्र ने कहा है कि शाश्वत सुख चाहने वाले पुरुष को कल्याणमित्र-योगादि रूप विशुद्ध योगों में धर्म सिद्ध करने का सम्यक् प्रयास करना चाहिए।४८ धर्मकथाप्रधान इस उपदेशपद की लघुकथाओं का विभाजन निम्नलिखित वर्गों में किया जा सकता है४९..१. कार्य एवं घटनाप्रधान कथाएं १. इन्द्रदत्त (गाथा १२), २. धूर्तराज (गाथा ८६), ३. शत्रुता (गाथा ११७)। २. चरित्रप्रधान कथाएं १. मूलदेव (गाथा ११), २. विनय (गाथा २०), ३. शीलवती (गाथा ३०-३४, ४. रामकथा (गाथा ११४), ५. वज्रस्वामी (गाथा १४६), ६. गौतमस्वामी (गाथा १४२), ७. आर्य महागिरि (गाथा २०३-२११), ८. आर्य सुहस्ती (गाथा २०३-२११), ९. विचित्र कर्मोदय (गाथा २०३-२११), १०. भीमकुमार (गाथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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