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________________ आचार्य हरिभद्रसूरिप्रणीत उपदेशपद : एक अध्ययन : ५९ उपदेशपद में इसी तरह के और भी मनोरंजक आख्यान दिये गये हैं। ‘कच्छप का लक्ष्य' २५ तथा 'युवकों से प्रेम'२६ नामक कथायें व्यंग्य प्रधान हैं। विविध आख्यानों के माध्यम से हरिभद्रसूरि ने औत्पत्तिकी आदि चारों प्रकार की बुद्धि की विशेषतायें प्रकट की हैं। बिना देखे, बिना सुने और बिना जाने विषयों को उसी क्षण में अबाधित रूप से ग्रहण करना तथा तत्सम्बन्धी चमत्कारों को कथाओं द्वारा दिखलाना ही इन कथाओं का उद्देश्य है। संख्या तथा मार्मिकता की दृष्टि से हरिभद्र की लघु कथाओं में बुद्धि चमत्कार प्रधान कथाओं का स्थान महत्त्वपूर्ण है। इस श्रेणी की कथाओं का शिल्पविधान नाटकीय तत्त्वों से सम्पृक्त रहता है। इतिवृत्त, चरित्र आदि के रहने पर भी प्रधानत: बुद्धि चमत्कार ही व्यक्त होता है। २७ । औत्पत्तिकी बद्धि 'गोल' पद के अन्तर्गत कहा है कि किसी बालक की नाक में खेलते-खेलते लाख की एक गोली चली गई। जब बालक के पिता को पता लगा तो उसने एक सुनार को बुलाया। सुनार ने सावधानीपूर्वक लोहे की गरम सलाई नाक में डालकर गोली तोड़ दी फिर धीरे से सलाई निकाली और पानी में डालकर ठण्डी कर दी। पुन: उस ठण्डी सलाई से नाक के अन्दर की गोली बाहर निकाल दी और वह बालक स्वस्थ हो गया। २८ वैनयिकी बुद्धि के अन्तर्गत निमित्त विद्या, अर्थशास्त्र, चित्रकला, लेखन, गणित, . अश्व, कूप, गर्दभ, अगद (विष), परीक्षा, गणिका, तथा अंक एवं लिपि ज्ञान से सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण बातें कथानकों सहित दी गई हैं। २९ उपदेशपदवृत्ति में अट्ठारह प्रकार की लिपियों का उल्लेख विशेष महत्त्वपूर्ण है। इन लिपियों के नाम इस प्रकार हैं -- हंसलिपि, भूतलिपि, यक्षी, राक्षसी, उड्डी, यवनी, फुडुक्की, कीडी, दविडी, सिंधविया, मालविणी, नटी, नागरी, लाटलिपि, पारसी, अनिमित्ता, चाणक्यी और मूलदेवी।३० खेल-खेल में लिपि विद्या सिखाने के विषय में एक आख्यान है कि किसी राजा ने अपने पत्र को लिपि सिखाने के लिए किसी उपाध्याय के साथ रखा; किन्तु अनुशासनहीनतावश वह लिपि सीखने में उत्साहित नहीं था। अपितु वह बालक खेल में ही मस्त रहता। उपाध्याय भी सिखाने में लापरवाही करते। किन्तु बाद में राजा के भय से उपाध्याय ने खडिया मिट्टी तथा उसकी गोलियों के माध्यम से खेल-खेल में भूमि, पत्थर आदि पर लिख-लिख कर और खड़िया मिट्टी से अक्षरों के आकार बनाकर उसे सिखाया। इससे वह शीघ्र ही लिपि विद्या सीख गया।३१ 'शत्रुता' शीर्षक कथा में वररुचि और शकटाल इन दोनों बुद्धिजीवियों की शत्रुता का अंकन किया गया है। वररुचि ने अपनी चालाकी द्वारा शकटाल को मरवा दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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