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________________ १८६ : श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९ जैनधर्म के आध प्रवर्तक भगवान् ऋषभदेव; लेखिका- डॉ० संगीता मिश्रा; प्रकाशक- कनकलता शुक्ला, भारती निकेतन, टेढ़ी बाजार, वशिष्ठ कुण्ड, अयोध्या, जिला- फैजाबाद, उत्तर प्रदेश; प्रथम संस्करण, १९९६ ई०, आकारडिमाई, पृष्ठ १६+१५८; मूल्य ५० रुपये मात्र। श्रमण परम्परा के प्रवर्तक आदि तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव का जीवन-चरित्र, उनका काल, उनके शरीर की लम्बाई-चौड़ाई, उनकी आयु आदि सभी पौराणिकता के नीचे दबी पड़ी हुई हैं। ऐसी परिस्थिति में अनेक विचारक उन्हें ऐतिहासिक न मानकर पौराणिक ही मानते आये हैं। प्रस्तुत पुस्तक में विदुषी लेखिका ने जैन साहित्य से उनके जीवन तथा कार्यों के कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को चुनकर निकाला है जो विश्वसनीयता की सीमा में आता है। प्रस्तुत ग्रन्थ लेखिका द्वारा प्रणीत शोधप्रबन्ध का मुद्रित रूप है जिस पर उन्हें पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त हुई है। प्रस्तुत पुस्तक में उन्होंने ऋषभदेव से सम्बन्धित जैन और जैनेतर परम्पराओं का उनके मूल ग्रन्थों के आधार पर अध्ययन किया है किन्तु कहीं भी उन्होंने किसी भी परम्परा के प्रति न तो पूर्वाग्रह अपनाया है और न ही उससे पूर्णतया अस्वीकार ही किया है अपितु दोनों में संतुलन बनाये रखते हुए इस ग्रन्थ का प्रणयन किया है। यह पुस्तक शोधार्थियों के लिये निश्चय ही लाभदायक होगी। पुस्तक की साज-सज्जा सामान्य तथा मुद्रण त्रुटिरहित है। लौट आ : निःस्वार्थ की निश्रा में; उपाध्याय मुनि गुप्तिसागर; सम्पादकब्रह्मचारी सुमन शास्त्री; प्रका०- कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र; प्रथम संस्करण १९९९ ई०; आकार-डिमाई; प्राप्ति स्थान-उपाध्याय गुप्तिसागर साहित्य संस्थान, २१५, कालानीनगर, इन्दौर, मध्यप्रदेश; पृष्ठ २४+८०; मूल्य-२५ रुपये। प्रस्तुत पुस्तक दिगम्बर परम्परा के सुप्रसिद्ध विद्वान् उपाध्याय गुप्तिसागर द्वारा दो वर्ष पूर्व हरिद्वार से बदरीनाथ की यात्रा के बीच विश्राम के क्षणों में उनके मन में उठे विचारों की काव्यात्मक अनुभूति है। इस संग्रह की प्रत्येक कविता नई दिशा और नया आलोक प्रदान करने में समर्थ है। श्रद्धेय उपाध्यायश्री शास्वत मानवीय मूल्यों के प्रस्तोता कवि एवं चिन्तक हैं। उनकी कविताओं में बदलते हुए युगीन परिवेश एवं मान्यताओं के दर्शन होते हैं। उनकी कविताओं में मानव और प्रकृति प्रेम की स्पष्ट झलक मिलती है। जीवन की नश्वरता के बारे में उनका कहना है "दीपक का जलना, और बझना एक स्वाभाविक घटना है, फिर जीवन के गमन और आगमन पर हर्ष-विषाद सुख-दुःख कैसा।” जीवन के सुख के बारे में उनका कहना है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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