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________________ साहित्य-सत्कार : १८३ मनुष्य एक शाकाहारी प्राणी है किन्तु अपने स्वाद के लिये उसने मांसाहार को अपना लिया है। आज वैज्ञानिकों ने गहन शोध कर यह निष्कर्ष निकाला है कि शाकाहार की तुलना में मांसाहार न केवल अधिक खर्चीला बल्कि हानिकारक भी है साथ ही यह देश के सामाजिक और आर्थिक ढांचे को भी पंगु बना देता है। प्रस्तुत पुस्तक में विदुषी लेखिका ने अत्यन्त श्रमपूर्वक ४ से ६ वर्ष के बालक-बालिकाओं के सामिष और निरामिष आहार को आधार बनाकर उनके संवेगोंकरुणा, क्रोध, ईष्या, क्रूरता, भय और घृणा- का अध्ययन प्रस्तुत किया है और यह निष्कर्ष निकाला है कि निरामिषाहारी बालकों में करुणा अधिक है जबकि ईष्या व क्रूरता सामिषाहारी बालकों में अधिक है। क्रोध और घृणा भी सामिषहारियों में ही अधिक देखी गयी। शोधप्रबन्ध ५ अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में संवेग के स्वरूप का संवेगात्मक विकास दर्शाया गया है। इसके अन्तर्गत संवेगों का वर्गीकरण, विभिन्न अवस्थाओं में संवेगात्मक विकास, बालकों में संवेगात्मकता को प्रभावित करने वाले कारक, बालकों के संवेगों की विशेषतायें, संवेगात्मक प्रभुत्व और बालकों के संवेगों के महत्त्व की चर्चा है। द्वितीय अध्याय में मानव आहार का तुलनात्मक परिचय दिया गया है। इसके अन्तर्गत आहार और पोषक तत्त्व, आहार और शरीर-संरचना, आहार और स्वास्थ्य, आहार और आर्थिक आधार, आहार और पर्यावरण संतुलन, आहार और सौन्दर्य बोध, आहार और नैतिक आधार, आहार और धार्मिक विचार, आहार और मनोविज्ञान, वनस्पति और पशु-पक्षियों में अन्तर, आहार और ऐतिहासिक तथ्य, अण्डा और दूध; वैज्ञानिक तथ्य आदि की विस्तृत चर्चा है। तृतीय अध्याय में आहार और मानव व्यवहार पर पूर्व में किये गये शोधकार्यों की समीक्षा है। चतुर्थ अध्याय में अध्ययन की विधि और प्रक्रिया की चर्चा है। पंचम अध्याय में परिणामों का विश्लेषण एवं विवेचना है। पुस्तक के अन्त में परिशिष्ट के अन्तर्गत सन्दर्भग्रन्थ-सूची एवं बाल संवेग मापनी प्रश्नोत्तरी भी दी गयी है जिससे इनका महत्त्व और भी बढ़ जाता है। इस पुस्तक का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार हो इस उद्देश्य से इसका मूल्य भी अत्यल्प रखा गया है। ऐसे सुन्दर और सर्वोपयोगी पुस्तक के प्रणयन और प्रकाशन के लिये लेखिका व प्रकाशक-संस्था दोनों ही बधाई के पात्र हैं। पुस्तक का मुद्रण निर्दोष तथा साज-सज्जा उत्तम है। यह पुस्तक न केवल शोधार्थियों बल्कि जनसामान्य के लिये भी उतनी ही उपयोगी है। हम आशा करते हैं कि लेखिका द्वारा भविष्य में भी इसी प्रकार के उपयोगी ग्रन्थों का प्रणयन किया जाता रहेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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