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श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९
संयम खलु जीवनम् – संयम ही जीवन है। सामाजिक स्वास्थ्य में बाधा डालने वाली जो वैयक्तिक मनोवृत्तियाँ हैं उनका परिमार्जन होना चाहिए। स्वभाव की जटिलता के कारण मनुष्य संघर्ष से गुजरता है और उसकी एक ऐसी भट्टी जलती है जिसकी आँच सदा प्रताड़ित करती रहती है। कभी क्रोध का, कभी अहङ्कार का, कभी वासना का तो कभी भय का। न जाने कितने चूल्हे जल रहे हैं। कितनी आँच पका रही है। उस असंयमतारूपी आँच के कारण स्वभाव बिगड़ता है और उसका परिणाम शरीर पर पड़ता है तो शरीर, मन और भावनाएं रुग्ण हो जाया करती हैं। यदि तीर्थङ्करों के सन्देश को जीवन में उतारा जाय तो एक स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकता है।
मनिचर्या में आए विशेष कठिन साधनों को गृहस्थ जीवन के अनुरूप अध्यवसाय में परिणत करने से तीर्थङ्करों की ऐतिहासिक उपदेशात्मक वाणी सार्थक होकर एक सुन्दर समाज की परिकल्पना हो सकती है।
सन्दर्भ
१.
२. ३. ४. ५.
जैन विद्या के आयाम, खण्ड ६, प्रो० सागरमल जैन अभिनन्दनग्रन्थ, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, १९९८, पृ०५९६. उत्तराध्ययनसूत्र (केशि गौतम संवाद) २३/२३. जैन विद्या के आयाम, पृ० ५९२. वहीं, पृ० १२८. आचार्य महाप्रज्ञ, महावीर का अर्थशास्त्र, आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन, पृ० १०३-११०.
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