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________________ विधिपक्ष अपरनाम अंचलगच्छ (अचलगच्छ) का संक्षिप्त इतिहास ३ प्रतिमालेख ३ प्रतिमालेख २ प्रतिमालेख २ प्रतिमालेख ३ प्रतिमालेख ३ प्रतिमालेख ३ प्रतिमालेख ४ प्रतिमालेख १ प्रतिमालेख ३ प्रतिमालेख १ प्रतिमालेख प्रतिमालेख अंचलगच्छीयलेखसंग्रह, लेखांक, २४१-६५, वि० सं० १५६४ वि०सं० १५६५ वि०सं० १५६६ वि०सं० १५६७ वि०सं० १५६८ वि०सं० १५६९ वि०सं० १५७० वि०सं० १५७३ वि०सं० १५७४ वि०सं० १५७६ वि०सं० ० १५७९ वि०सं० १५८० विस्तार के लिये द्रष्टव्य ४१४, ७०४-३१। सिद्धान्तसागरसूरि के दूसरे शिष्य सुमतिसागर से अंचलगच्छ की गोरक्ष शाखा अस्तित्त्व में आयी। इस शाखा में भी कई विद्वान् मुनि हो चुके हैं जिनके बारे में यथास्थान प्रकाश डाला गया है। भावसागरसूरि के पट्टधर गुणनिधानसूरि हुए। इनके द्वारा रचित न तो कोई साहित्य प्राप्त होता है और न ही किन्हीं अन्य साक्ष्यों में इनके किसी कृति का उल्लेख ही मिलता है । इनके उपदेश से श्रावकों द्वारा प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमायें भी अंचलगच्छीय पूर्वाचार्यों की तुलना में कम हैं। ये प्रतिमायें वि० सं० १५७९ से वि०सं० १६०० तक की हैं। इनका विवरण इस प्रकार है वि०सं० १५७९ वि०सं० १५८४ वि०सं० १५८७ वि०सं० १५९८ वि०सं० १५९१ Jain Education International : १३३ १ प्रतिमालेख २ प्रतिमालेख ४ प्रतिमालेख १ प्रतिमालेख २ प्रतिमालेख For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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