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________________ आचाराङ्ग के कुछ महत्त्वपूर्ण सूत्र : एक विश्लेषण : ९ अप्पेगे अट्ठाए वहंति, अप्पेगे अणट्ठाए वहंति अप्पेगे हिंसिंसु मेत्ति वा वहंति अप्पेगे हिंसंति मेत्ति वा वहंति अप्पेगे हिंसिस्संति मेत्ति वा वहति (४०/१४०) जहाँ तक हिंसा की प्रयोजनात्मक ('अट्ठाए') और अप्रयोजनात्मक ('अणट्ठाए') विमा का प्रश्न है, अर्थवान् अथवा प्रयोजनात्मक हिंसा के कुछ उदाहरण इसी गाथा के आरम्भ में दिए गए हैं जिसमें कहा गया है कि कुछ व्यक्ति शरीर के लिए प्राणियों का वध करते हैं तो कुछ लोग चर्म, मांस, रक्त, हृदय, पित्त, चर्बी, पंख, पूंछ, केश, सींग, दंत, दाढ़, नख, स्नायु, अस्थि और प्राणियों की अस्थिमज्जा के लिए उनका वध करते हैं। यह स्पष्ट ही प्रयोजनात्मक हिंसा है। हिंसा करने के बेशक और भी प्रयोजन हो सकते हैं। एक अन्य गाथा, जिसे आयारो में बार-बार दोहराया गया है, के अनुसार मनुष्य हिंसा वर्तमान जीवन के लिए प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए जन्म-मरण और मोचन के लिए, दुःख प्रतिकार के लिए करता है। (३९/१३०) इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रयोजनात्मक हिंसा के कई विवरण हमें आयारो में मिलते हैं; किन्तु अप्रयोजनात्मक (अणट्ठाए) हिंसा का कोई स्पष्ट उदाहरण हमें नहीं मिलता, परन्तु एक गाथा में यह कहा गया है कि आसक्त मनुष्य हास्य-विनोद में (कभी-कभी) जीवों का वध कर आनन्द प्राप्त करता है अवि से हासमासज्ज, हंता णंदीति मन्नति (१३०/३२) इसे स्पष्ट ही निरर्थक (अप्रयोजनात्मक) हिंसा कहा जा सकता है। इस प्रकार की हिंसा से मनुष्य को कोई लाभ नहीं होता सिवा इसके कि वह इस प्रकार की हिंसा करके एक अस्वस्थ सुख प्राप्त करे। इस प्रकार की निरर्थक हिंसा को हम क्रीडात्मक हिंसा भी कह सकते हैं। आयारो के अनुसार इस प्रकार की क्रीड़ात्मक हिंसा में केवल बाल और अज्ञानी लोग ही प्रवृत्त हो सकते हैं, क्योंकि इससे कोई मानव प्रयोजन तो सधता नहीं है, बल्कि इससे व्यक्ति निरर्थक ही अन्य प्राणियों से अपना बैर ही बढ़ाता है। अलं बालस्य संगेणं, वे बहुति अप्पणो। (१३०/३२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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