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श्रमण)
जैन दर्शन में सृष्टि की अवधारणा
अतुल कुमार प्रसाद सिंह
मनुष्य अपने अस्तित्व में आने के प्रारम्भिक काल से ही ब्रह्माण्ड की रचना के विषय में जिज्ञास रहा है। इस विराट और अनन्त लोक की सृष्टि कैसे हई, कब हुई इत्यादि प्रश्न आदिकाल से ही इसके मस्तिष्क में चक्कर काटते रहे हैं। परन्तु यह ब्रह्माण्ड इतना विराट है कि मनुष्य अपने सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान का उपयोग करके भी अब तक ब्रह्माण्ड में बालुकाकण सदृश इस सौरमण्डल में चक्कर काटते चन्द पिण्डों के विषय में भी सम्यक् जानकारी हासिल नहीं कर पाया है, परन्तु मानव का जिज्ञासु मस्तिष्क हमेशा ही इस प्रश्न का समाधान खोजने में लगा रहा। इसी क्रम में उसमें सृष्टि विषयक भिन्न-भिन्न कल्पनाएं कर डाली और अपने ग्रन्थों में इसे सुरक्षित किया।
भारतीय दर्शन की विभिन्न शाखाओं में सृष्टि के सम्बन्ध में अलग-अलग मत प्रतिपादित किये गये है। इनमें सृष्टि को देवकृत, ईश्वरकृत, ब्रह्मकृत, शून्यकृत आदि कहा गया है। विश्व वाङ्मय में सर्वप्राचीन ग्रन्थ वेद से ही इस विषय में ऊहापोह प्रारम्भ हो जाता है। वैदिक साहित्य में सृष्टि की अवधारणा इस प्रकार है -
हिरण्यगर्भः समवर्तताने भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथवी द्यामुतेमा कस्मै देवाय हविषा विधेम।।१
अर्थात् सबसे पहले स्वर्ण के समान देदीप्यमान यह गोला प्रकट हुआ। वही सम्पूर्ण भावी सृष्टि का एकमात्र प्रवर्तक सिद्ध हुआ उसी ने इस पृथ्वी और आकाश को अपने में सम्भाले रखा। संसार के उसी स्रष्टा का हम अभिवादन करते है। वहीं यह भी कहा गया है -
*. शोधच्छात्र, जैन-बौद्ध दर्शन विभाग, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान सङ्काय, काशी
हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-२२१००५
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