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श्री अजरामर स्वामी
डॉ० रमणलाल ची० शाह हिन्दी अनुवादक - श्री भंवरलाल नाहटा*
स्थानकवासी सम्प्रदाय में हुए महात्माओं में स्व० पू० श्री अजरामर स्वामी का स्थान अनोखा है। इन्होंने अपने जीवन काल में धार्मिक क्षेत्र में अनेक भागीरथ कार्य किए थे। इन्होंने जैन दर्शन के सिवा अन्य भारतीय दर्शनों का भी गहन अध्ययन किया था, अत: इनमें साम्प्रदायिक संकुचितता या कट्टरता नहीं रह गयी थी। ये बहुत उदार और समन्वयकारी दृष्टिकोण के धारक थे। गुजरात, सौराष्ट्र और कच्छ की ओर बहुत विचरे थे। कच्छ में भी विस्तृत वागड़ पर इनका विशिष्ट प्रभाव रहा। इनकी जीवनी के विषय में कितनी ही जानकारियां मिलती हैं, उसी के आधार शतावधानी पं० रत्नचंद जी महाराज ने इनका जीवन चरित्र लिखा हैऔर इनके विषय में भक्तामर पादपूर्ति की संस्कृत श्लोकों में रचना की है।
अजरामर स्वामी का जन्म वि० सं० १८०९ के ज्येष्ठ शुक्ल ९ के दिन जामनगर के निकटवर्ती पडाणा ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम माणेकचंद था,
और माता का नाम कंकुबाई । ये जाति के वीसा ओसवाल थे। अजरामर जी का जन्म नाम भी अजरामर ही था। जब ये पाँच वर्ष के हुए तब इनके पिता का देहावसान हो गया। दु:खित विधवा माता कंकुबाई ने अपना मन धर्मध्यान की ओर लगा दिया। बालक अजरामर ने गाँव की पाठशाला में पढ़ना प्रारम्भ किया था और माता इसे प्रतिदिन उपाश्रय में ले जाती तब गुरु महाराज के पास भी साथ में ले जाती थी।
___ माता कंकुबाई का प्रतिदिन सामायिक और प्रतिक्रमण करने का नियम था। उन्हें तो पाठ आते नहीं थे परन्तु स्थानक में जाकर दूसरों के बोलने के साथ सामायिक प्रतिक्रमण कर लेती थी।
एक दिन वर्षा बहुत तेज रही थी इसलिए स्थानक जाना संभव नहीं था। माता कंकुबाई उदास बैठी थी क्योंकि उसका प्रतिदिन का प्रतिक्रमण का नियम भंग हो रहा था। माँ को चिन्तित देखकर बालक अजरामर ने कारण ज्ञात कर उनसे कहा - 'माँ! तुम चिन्ता मत करो, मैं तुम्हें पूरा प्रतिक्रमण सूत्रों को बोल कर करा दूंगा। माँ ने पुत्र की बात सत्य न मानी तो अजरामर ने कहा - मैं प्रतिदिन स्थानक साथ ही तो चलता हूँ अत: मुझे प्रतिक्रमण पूरा कण्ठस्थ हो गया है। छ: वर्ष के बालक ने जब माता को पूरा प्रतिक्रमण शुद्ध उच्चारणपूर्वक करा दिया तब उसे बहुत आश्चर्य हुआ। *४, जगमोहन मल्लिक लेन, कलकत्ता - ७००००७