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________________ जैनयोग में अनुप्रेक्षा वर्णन प्रसिद्ध है। इन्हें बारह वैराग्य भावना भी कहते हैं। इनके अनुचितंन से व्यक्ति भोगों से निर्विण्ण होकर साम्य भाव में स्थित हो सकता है। ___ध्यान की परिसम्पन्नता के पश्चात् मन की मूर्छा को तोड़नेवाले विषयों का अनुचिंतन करना अनुप्रेक्षा है। अनु एवं प्र उपसर्ग सहित ईक्ष धात् के योग से अनुप्रेक्षा शब्द निष्पन्न हुआ है, जिसका शाब्दिक अर्थ है- पुन: पुन: चिंतन करना/ विचार करना। प्राकृत में अनुप्रेक्षा के लिए अणुप्पेटा, अणुपेहा, अणुवेक्खा, अणुवेहा, अणुप्पेक्खा, अणुपेक्खा आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। इन सबका संस्कृत रूपान्तरण अनुप्रेक्षा है। आचार्य पूज्यपाद ने शरीर आदि के स्वभाव के अनुचिंतन को अनुप्रेक्षा कहा है। स्वामी कुमार के अभिमतानुसार सुतत्त्व का अनुचिंतन अनुप्रेक्षा है। अनित्य अशरण आदि स्वरूप का बार-बार चिंतन, स्मरण करना अनुप्रेक्षा है। अनुप्रेक्षा तत्व चिंतनात्मक है। ध्यान में जो अनुभव किया है उसके परिणामों पर विचार करना अनुप्रेक्षा है। अध्यात्म के क्षेत्र में अनुप्रेक्षा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अनुप्रेक्षा के विविध प्रयोगों से व्यक्ति की बहिर्मखी चेतना अन्तर्मुखी बन जाती है। चेतना की अन्तर्मुखता ही अध्यात्म है, जीवन का अभीष्ट लक्ष्य है। अनुप्रेक्षा के महत्त्व को प्रकट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि जितने भी भूतकाल में श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए हैं एवं भविष्य में होंगे वह सब भावना का ही महत्त्व है। आ० पद्मनंदि बारहअनुप्रेक्षा के अनुचिंतन की प्रेरणा देते हुये कहते हैं कि बारह भावना महान् पुरुषों के द्वारा सदा ही अनुप्रेक्षणीय है। उनकी अनुचिंतना कर्मक्षय का कारण है। शुभचन्द्राचार्य कहते हैं कि भावना के अभ्यास से कषायाग्नि शांत, रागनष्ट एवं अंधकार विलीन हो जाता है तथा पुरुष के हृदय में ज्ञान रूपी दीपक उद्भासित हो जाता है | तत्त्वार्थसूत्र, कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि ग्रन्थों में अनुप्रेक्षा को संवर धर्म का विशेष हेतु माना गया है। आगम में एक साथ बारस अनुप्रेक्षा का उल्लेख नहीं है किंतु उत्तरवर्ती साहित्य में उनका एक साथ वर्णन है। वारस-अणुवेक्खा, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, शान्तसुधारस-भावना आदि ग्रन्थों का निर्माण तो मुख्य रूप से इन अनप्रेक्षाओं के लिए ही हुआ है। तत्त्वार्थसूत्र आदि में भी इनका पर्याप्त विवेचन उपलब्ध है। शान्त सुधारस आदि कुछ ग्रन्थों का निर्माण तो मुख्य रूप से इन अनुप्रेक्षाओं के लिए ही हुआ है। तत्त्वार्थसूत्र आदि में भी इनका पर्याप्त विवेचन उपलब्ध है। शान्त-सुधारस आदि कुछ ग्रन्थों में इन बारह भावनाओं के साथ मैत्री आदि चार भावनाओं को जोड़कर सोलह भावनाओं का विवेचन किया गया है। जैन साहित्य में बारह भावनाओं का उल्लेख बहुलता से प्राप्त है। अनित्य आदि अनुप्रेक्षा के पृथक-पृथक प्रयोजन का भी वहां पर उल्लेख है। आसक्ति विलय के लिए अनित्य अनुप्रेक्षा, धर्मनिष्ठ के विकास के लिए 3 33333000
SR No.525036
Book TitleSramana 1999 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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