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________________ १० श्रमण : अतीत के झरोखे में के लिये निःसन्देह मार्गदर्शक सिद्ध होगा । विद्यासागर की लहरें : प्रकाशक- श्री दिगम्बर जैन युवक संघ, केन्द्रीय कार्यालय, मनोरमा ट्रेडर्स, वर्णी कालोनी, सागर ४७२००२, मध्यप्रदेश, पृष्ठ १९५ । __ प्रस्तुत पुस्तक में श्रमण परम्परा के आदर्श, सन्तशिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी महाराज के जीवन की उपलब्धियों का अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से विवेचन प्रस्तुत किया गया है । इसमें आचार्यश्री की गुरु-परम्परा, जीवन परिचय, उनके द्वारा दीक्षित साधु, क्षुल्लक, आर्यिका आदि का परिचय, आचार्यश्री की साहित्य साधना, आचार्यश्री द्वारा सम्पन्न कराये गये विभिन्न धार्मिक, सामाजिक आदि कार्यों, आचार्यश्री द्वारा रचित साहित्य पर हो रहे शोधकार्यों आदि का बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुतीकरण किया गया है । इस पुस्तक के लेखक और मूल्य का इसमें संकेत नहीं दिया गया है इससे यही प्रतीत होता है कि वितरण हेतु ही इसका प्रकाशन हुआ है । पुस्तक की साज-सज्जा अत्यन्त आकर्षक और मुद्रण निर्दोष है । ऐसे सुन्दर और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ न केवल प्रत्येक पुस्तकालयों बल्कि विद्वानों के लिये भी अनिवार्य रूप से संग्रहणीय है। जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज (अंग्रेजी), लेखक :श्री बारेलाल जैन, अंग्रेजी अनुवादक : श्री निरंजन जेतलपुरिया; प्रकाशकः के० एस० गारमेन्ट्स, २५, खजुरी बाजार, इन्दौर - मध्यप्रदेश, पृष्ठ - १४,प्रकाशन वर्ष १९९७-९८ ई० ।। प्रस्तुत पुस्तिका में दिगम्बर जैन समाज के गौरव, युगपुरुष, संतकवि आचार्य विद्यासागर जी का जीवनचरित्र सरल और सुबोध अंग्रेजी भाषा में दिया गया है । सर्वोत्तम आर्ट पेपर पर मुद्रित यह लघु पुस्तिका अपनी आकर्षक साज-सज्जा के कारण सहज ही अपनी ओर ध्यान आकर्षित कर लेती है । पुस्तक सभी के लिये पठनीय और संग्रहणीय अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका संस्कृत टीका हिन्दी भावार्थ युक्त, रचनाकारआ० विजयसुशीलसूरि, सम्पादक, जिनोत्तमविजय गणि, प्रकाशक, श्री सुशील साहित्य प्रकाशन समिति, जोधपुर, पृष्ठ १२+२०८; प्रकाशनवर्ष वि० सं० २०५३ । कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि द्वारा रचित अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका पर आचार्य विजयसुशीलसूरि ने स्याद्वादसुबोधिनी नामक टीका और उसका हिन्दी भावार्थ देकर जिज्ञासुओं का महान् उपकार किया है । पुस्तक के प्रारम्भ में दी गयी १२ पृष्ठों की प्रस्तावना भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । पुस्तक सभी जिज्ञासुओं के लिये पठनीय और संग्रहणीय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525034
Book TitleSramana 1998 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1998
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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