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८६ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९८
मुण्डेव खण्डितनिरन्तरवृक्षखण्डा,
__निष्कुण्डलेव दलितोज्ज्वलवृत्तवप्रा।। दूरादपास्तविषया विधवेव दैन्यमभ्येति,
गूर्जरधराधिपराजधानी।।१०४।। मन्त्रप्रतिष्ठा नामक तृतीय सर्ग में श्लोकों की संख्या ७९ है। इस सर्ग में प्रथम ५० श्लोक अनुष्टुभ् में निबद्ध हैं। इसके बाद २१३ श्लोक (५१ से ७३) रथोद्धता में, दो (७४-७५) शालिनी में, श्लोक संख्या ७६ वंशस्थ में, ७७ शिखरिणी में, ७८ मालिनी में और अन्तिम ७९ पुष्पिताग्रा में निबद्ध है।
___ ऊपर प्रयुक्त छन्दों में से अनुष्टुभ्, मालिनी और पुष्पिताग्रा का परिचय पूर्व पृष्ठों में दिया जा चुका है। अन्य प्रयुक्त रथोद्धता, शालिनी, वंशस्थ और शिखरिणी का लक्षण तथा कीर्तिकौमुदी के अनुसार उदाहरण निम्नवत है
रथोद्धता१६ - (रानरातिह रथोद्धता तगौ।।)
अर्थत् जिसमें रगण, नगण, रगण, एक लघु, एक गुरु हो तो उसका नाम रथोद्धता है। जैसे— १७
यौवनेऽपि मदनान्न विक्रिया, नो धनेऽपि विनयव्यतिक्रमः । दुर्जनेऽपि न मनागनार्जवं, केन वामिति नवाकृतिः कृता ।।६१॥ शालिनी८ (शालिन्युक्ता म्तौ तगौ गोऽब्धिलोकैः।।)
अथात् इस छन्द के प्रत्येक चरण में क्रमश: मगण, दो तगण औरदो गुरु होते हैं। इसकी यति चार सात वर्गों पर होती है। उदाहरण ९
दृष्टिर्नष्टा भूपतीना तमोभिस्ते लोभान्धान् साम्प्रतं कुर्वतेऽग्रे । यैर्नीयन्ते वर्त्मना तेन यत्र, भ्रश्यन्त्याशु व्याकुलास्तेऽपि तेऽपि ।।७५।। वंशस्थ२० - (जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ।।)
अर्थात् वंशस्थके चारों चरणों में से प्रत्येक में जगण, तगण, जगण और रगणहोते हैं। उदाहरण२१
न सर्वथा कश्चन लोभवर्जितः, करोति सेवामनुवासरं विभोः। तथापि कार्य: स तथा मनीषिभिः। परत्र बाधा न याथाऽत्र वाच्यता।।७६।। शिखरिणी२२ - (रसैसेंट्रैश्छिन्ना यमनसभला ग: शिखरिणी।।)