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श्रमण
कीर्तिकौमुदी में प्रयुक्त छन्द
डॉ० अशोक कुमार सिंह
सोमेश्वरदेव (१३वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध) कृत 'कीर्तिकौमुदी' का ऐतिहासिक महाकाव्यों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। गुजरात के बघेल राजवंश के राणक लवण प्रसाद और वीरधवल के पुरोहित सोमेश्वरदेव और चालुक्य राजा भीमदेव के अमात्य बन्धु वस्तुपाल-तेजपाल में प्रगाढ़ मित्रता थी। वस्तुपाल के अपने प्रति सौहार्द, उसके अप्रतिम पराक्रम, साहित्यिक प्रतिभा तथा यश से अभिभूत सोमेश्वर ने वस्तुपाल के गुणों की प्रशस्तिरूप कीर्तिकौमुदी नामक काव्य सहित, कई प्रशस्तियों की रचना की। सोमेश्वरदेव उच्चकोटि के प्रतिभाशाली कवि थे, कीर्तिकौमुदी उनकी उत्कृष्ट साहित्यिक रचना है। इसमें प्रतिपाद्य तथ्यों का भी विशेष महत्त्व है क्योंकि इसका नायक काव्य प्रणेता का समकालीन है, चिरपरिचित है, प्रगाढ़ मित्र है। कवि और काव्य नायक के समकालीन होने से इस कृति की ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिकता बढ़ जाती है।
कीर्तिकौमुदी में नौ सर्ग हैं और इसके श्लोकों की संख्या ७२२ है। इसके सर्गों का नाम क्रमश: नगरवर्णन, नरेन्द्रवंशवर्णन, मन्त्रप्रतिष्ठा, दूतसमागम, युद्धवर्णन, पुरप्रमोदवर्णन, चन्द्रोदयवर्णन, परमार्थविचार और यात्रासमागमन है।
सर्गानुसार कीर्तिकौमुदी में प्रयुक्त छन्दों का लक्षण सहित विवेचन इस प्रकार है। प्रथम सर्ग नगरवर्णन में ८१ श्लोक हैं। इसमें आरम्भ के ७६ श्लोकों में अनुष्टुभ् छन्द प्रयुक्त हआ है। इसके बाद ७७ से ८१ तक क्रमश: उपेन्द्रवज्रा, उपजाति, पुष्पिताग्रा, शालिनी तथा शार्दूलविक्रीडित छन्द प्रयुक्त हुए हैं। इन छन्दों का लक्षण एवं कीर्तिकौमुदी के अनुसार उदाहरण निम्नवत् हैअनुष्टुभ्रे
श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघुपञ्चम । द्विचतुःपादयोर्हस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः ।।
अर्थात् अनुष्टुभ् में आठ वर्ण वाले चार चरण होते हैं। इसके अनेक प्रकार होते हैं। अनुष्टभ् के प्रत्येक चरण का पञ्चम वर्ण लघु और षष्ठ गुरु होता है। प्रथम और * वरिष्ठ प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी।