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82 : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१६६७
आसादेवसुत श्रे० शांतिपुत्रेण व्य० उदयपातेन श्रे० षोहिणि स्वश्रेयोर्थं (स्वश्रेयोऽ६)
श्रीमल्लिनाथजिनविंवं (बिंबं) कारितमिति। परिकर के नीचे का लेख बड़ा जैन मंदिर, बढवाण
जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं प्रथम लेख में जो वि०सं० ११३६ का है, जीवदेवाचार्य की परम्परा के अनुयायी एक श्रावक द्वारा शांतिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठापित करने की बात कही गयी है जबकि द्वितीय लेख में (जो वि०सं० १२०७ का है) देवसूरि की परम्परा के एक श्रावक द्वारा अजितनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठापित करने का उल्लेख है।
श्वेताम्बर परम्परा में परकायप्रवेशविद्या में निपुण जीवदेवसरि नामक एक प्रभावक आचार्य हो चुके हैं। जो वायडगच्छ के आदिम आचार्य माने जाते हैं। उनका काल ईस्वी सन् की स्वीं-६वीं शताब्दी माना जाता है।३ यदि ऊपरकथित अभिलेखों में उल्लिखित जीवदेवसूरि और देवसूरि से वायडगच्छ के प्रवर्तक जीवदेवसूरि की ओर संकेत है तो यह कहा जासकता है कि वायडगच्छ या वायटीयगच्छ की एक शाखा के रूप में यह गच्छ अस्तित्व में आया होगा।
इस गच्छ से सम्बद्ध तृतीय और चतुर्थ लेखों से भी ज्ञात होता है कि प्रतिमा । प्रतिष्ठा का कार्य इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा नहीं बल्कि श्रावकों द्वारा ही सम्पन्न होता रहा। वि०सं० १२६३ के पश्चात् इस गच्छ से सम्बद्ध कोई साक्ष्य नहीं मिलता। अतः यह माना जा सकता है कि इस गच्छ के अनुयायी श्रमण विक्रम सम्वत की तेरहवीं शती के अन्त तक किन्हीं अन्य प्रभावशाली गच्छों में सम्मिलित हो गये होंगे।
इस गच्छ के प्रवर्तक कौन थे! वायडगच्छ की एक शाखा के रूप में यह गच्छ कब अस्तित्व में आया, साक्ष्यों के अभाव में ये सभी प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाते हैं। संदर्भ१. विजयधर्म सूरि-संपा० प्राचीनलेखसंग्रह, भाग १, यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, भावनगर
१६२६ ई०स०, लेखांक २,१०,२१,३२ २. प्रभावकचरित, संपा० मुनि जिनविजय, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक १३, कलकत्ता
१६४० स०, पृष्ठ ४७-५३. "जीवदेवसूरिप्रबन्ध" प्रबन्धकोश, संपा० मुनि जिनविजय, सिंघी जैन ग्रन्थमाला,
ग्रन्थांक ६, शांतिनिकेतन १६३५ ई०स०, पृष्ठ ७-६. 3. M.A. Dhaky- "Vayata-gaccha and Vayatiyacaityas" निर्ग्रन्थ, वर्ष २,
१६६६ ई०स०, हिन्दी खण्ड, पृष्ठ ४०-४८.
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