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50 : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९६७
के हों ऐसा नहीं है। इसमें तो हरेक ‘पाहुड' में बीसों प्रयोग अपभ्रंश के मिलते हैं। लगा १५० से अधिक प्रयोग अपभ्रंश भाषा के सदृश मिल रहे हैं और यदि उन अपभ्रंश प्रयोगों को सुधारकर उन्हें शौरसेनी प्राकृत के अनुरूप (यानी समीक्षित आवृत्ति बनाने का यही अर्थ होता हो तो?) बना दिया जाय तो सभी जगह गाथाओं में छान्दोभंग हो जाता है। किसी भी पद्यमय रचना में इसप्रकार की क्षति समीक्षित आवृत्ति के मापदण्ड से मान्य नहीं ठहरेगी। नमूने के रूप में कुछ ही ऐसे सुधारे हुए उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं जिससे स्पष्ट हो जाएगा कि ऐसा साहस कहाँ तक उचित होगा?
'षट्प्राभृत' में उपलब्ध प्रयोग और संशोधित प्रयोग। दोनों में मात्राओं का अन्तर और तब फिर संशोधित पाठ से छन्दोभंग का भय।
षट्प्राभृत के पाठ
उपलब्ध मुद्रित पाठ और मात्राएं
संशोधित पाठ और मात्राएं (कल्पित-समीक्षित पाठ)
१. प्रथमा एकवचन
दुस्सील १.१६
दुस्सीलो
गरहिउ ३.१६
गरहिओ (५)
भणिय ४.५४ भणिया (स्त्री०)
मुणी, मुणिणो, मुणीओ, मुणओ
२. प्रथमा बहुवचन
मुणि ५.१५६
(२) णिब्भय, ४.५० साहु ६.१०४
साहुणे, साहवो, साहू, साहूओ
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