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________________ 20 : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर /१६६७ के रूप में मागधी का एक ऐसा संस्करण तैयार किया गया, जिसे संस्कृत के विद्वान् और भिन्न-भिन्न प्रान्तों के लोग भी आसानी से समझ सकें। अतः बुद्ध वचन मूलतः मागधी में थे, न कि शौरसेनी में। बौद्ध त्रिपिटक की पालि और जैन आगमों की अर्धमागधी में कितना साम्य है, यह तो सुत्तनिपात और इसिभासियाईं के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है। प्राचीन पालि ग्रन्थों एवं प्राचीन अर्धमागधी आगमों की भाषा में अधिक दूरी नहीं है। जिस समय अर्धमागधी और पालि में ग्रन्थ रचना हो रही थी, उस समय तक शौरसेनी एक बोली थी, न कि एक साहित्यिक भाषा। साहित्यिक भाषा के रूप में उसका जन्म तो ईसा की तीसरी शताब्दी के बाद ही हुआ है। संस्कृत के पश्चात् सर्वप्रथम साहित्यिक भाषा के रूप में यदि कोई भाषा विकसित हुई है तो वे अर्धमागधी एवं पालि ही हैं, न कि शौरसेनी। शौरसेनी का कोई भी ग्रन्थ या नाटकों के अंश ईसा की दूसरी-तीसरी शती से पूर्व का नहीं है- जबकि पालि त्रिपिटक और अर्धमागधी आगम साहित्य के अनेक ग्रन्थ ई०पू० तीसरी-चौथी शती में निर्मित हो चुके थे। 'प्रकृतिः शौरसेनी' का सम्यक् अर्थ जो विद्वान् मागधी को शौरसेनी से परवर्ती एवं उसी से विकसित मानते हैं. वे अपने कथन का आधार वररुचि (लगभग ७वीं शती) के प्राकृतप्रकाश और हेमचन्द्र (लगभग १२वीं शताब्दी) के प्राकृतव्याकरण के निम्न सूत्रों को बताते हैं:अ. १. प्रकृतिः शौरसेनी ।।१०/२।। अस्याः पैशाच्याः प्रकृतिः शौरसेनी। स्थितायां शौरसेन्यां पैशाची लक्षणं प्रवर्तात्ततव्यम्। २. प्रकृतिः शौरसेनी ।।११/२।। अस्याः मागध्याः प्रकृतिः शौरसेनीति वेदितव्यम् । वररुचिकृत 'प्राकृत प्रकाश' ब. १. शेष शौरसेनीवत् ।।८/४/३०२।। ___ मागध्या यदुक्तं, ततोअन्यच्छौरसेनीवद् द्रष्टव्यम्। २. शेष शौरसेनीवत् ।।८/४/३२३ ।। पैशाच्यां यदुक्तं, तओअन्यच्छेषं पैशाच्या शौरसेनीवद् भवति। ३. शेष शौरसेनीवत् ।।८/४/४४६ ।। अपभ्रंशे प्राय+ शौरसेनीवत् कार्य भवति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525032
Book TitleSramana 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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