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________________ ६९ : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९७ द्वितीय सर्ग में ७५ श्लोक हैं जो त्रिविध छन्दों में निबद्ध हैं- वंशस्थ, द्रुतविलम्बित २ और वसंततिलक'३ । इस सृर्ग का सर्वाधिक प्रयुक्त छन्द वंशस्थ है । पूर्व सर्ग में प्रयुक्त छन्दों से भिन्न जो प्रस्तुत सर्ग के अभिनव छन्द हैं, उनके लक्षण एवं उदाहरण इस प्रकार हैं। वंशस्थ'४. (जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ ।) के चारों चरणों में क्रमश: जगण, तगण, जगण और रगण होते हैं । इसे वंशस्थविल या वंशस्तनित छंद भी कहा जाता अथान्यदा पिंगजटः शुचिप्रभो मृगाजिनाषाढधरो वृशीकरः । हरेर्विधेर्वा सदनं समाययौ नभस्तलान्नारदसंज्ञकोपि ।।२।। द्रुतविलम्बित'५. (द्रुतविलम्बितमाह नभो भरौ ।) के चारों चरणों में क्रमश: नगण, भगण, भगण और रगण होते हैं। इति निगद्य वांसि वचोहरे प्रियतमाप्रहिते प्रियवादिनि । निजपंद प्रति संचलिते हरिः पदं । क्षणमसौ हृदिशून्य इवाभवत् ।।७४।। तृतीय सर्ग में ७७ श्लोक हैं जो पाँच प्रकार के छन्दों में निबद्ध हैं - रथोद्धता१६, .. इन्द्रवज्रा५, वसन्ततिलक, १८ शार्दूलविक्रीडित ९ एवं प्रहर्षिणी२० । इस सर्ग में रथोद्धता छन्द का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है । प्रस्तुत सर्ग के नवीन छन्द रथोद्धता एवं प्रहर्षिणी के लक्षण एवं उदाहरण इसप्रकार हैं - रथोद्धता १. (रात् परैर्नरलगै रथोद्धता) के प्रत्येक चरण में क्रमश: रगण, नगण,रगण लघु और गुरु वर्ण होते हैं । कौतुकेन पुरमिद्धमीक्षितुं नंदनं वनमिवागतं धराम् । पाकशासनसमानतेजसौ तद्वनं ददृशतुर्यदूत्तमौ ॥३/१।। प्रहर्षिणी२२. (त्र्याशाभिर्मनजरगा: प्रहर्षिणीयम् ) के चारों चरणों में क्रमश: मगण नगण, जगण, रगण और एक गुरु वर्ण तथा तीन और दस अक्षरों में यति होती है । ज्ञाताओं मुदितमनास्तथेति मत्वा स्वां भूषां निजवसनैः प्रदाय चास्मै । संप्रेष्य स्वमतवचोहरैश्च दूतं तत्रासौ हरिरनघ: सुखेन तस्थौ ॥३/७७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525031
Book TitleSramana 1997 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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