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श्रमण / जुलाई-सितम्बर/ १९९७
भाव जु आतम भावतो रे, सो बैठो मुहि मांहि । काया बिन क्रिया नहीं रे, किरया बिन सुख नांहि ॥ १०० ॥ | मोरा ० गज सुकुमाल गिरयौ नहीं रे, फरस तपत भई जोर । केवलज्ञान उपजि कै रे, पहुचे शिवगत ओर || १०१ || मोरा० खंदक रीषि की खाल उतरी रे, सहे परीसह जोर । पूरब बंध छूटे नहीं रे, घट गए कर्म कठोर ॥ १०२ ॥ | मोरा ० देखहु मुनि दमदंत कौरे, कौरों करी उपाधि ।
ईटनमैं ग्रमत भयौं रे तहु न तजी समाधि || १०३ || मोरा० सेठ सुदर्शन कौ दियौ रे, राजा दंड प्रहार ।
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सह्यौ परीसह भाव सौ रे, प्रगट्यौ पुन्य अपार ॥ १०४ ॥ । मोरा प्रसनचंद सिर फर सियौरे, फरस गए सब भाव ।
नर्कही तजु सिवगत लही रे, देखउ फरस उपाव ।। १०५ ।। मोरा० जेते जीव मुकत गए रे, फरस ही के उपगार ।
पंच महाव्रत बिन धरै रे, कोउ न उत पार ।। १०६ ।। मोरा ० नाउं कहा लौं लीजीयै रे, वीत्यौ काल अनंत । 'भैया' सब' उपगार को रे, जानत श्री भगवंत ॥ १०७ ॥ मो० ॥ ६. मन द्वारा स्पर्शन इन्द्रिय की आलोचना
सोरठा
मन बोल्यौ तिह ठौर, अरे फरस संसार में, 1
तूं मूरख सिरमौर, कहा गरब झूठौ करे ॥ १०८ ॥ इक अंगुल परमान, रोग छानवें भरि रहै ।
कहा करे अभिमान, देखि अवस्था नर्क की ।। १०९ ।। पांचौं अव्रतसार, तिन सेती नित र पोखियै । उपजै केइ विकार, एतै पै अभिमान इह ॥ ११० ॥
छिन इक मैं खिर जाय, देख दृिष्ट शरीर यह ।
एतै पैं गर्वाय, तौ ते मूरख कौ नही ॥१२१॥
मन द्वारा आत्मप्रशंसा
घत्ता
मन राजा मन चक्रि है, मन सबको सिरदार ।
मन सौं बड़ौ न दूसरो देख्यो इहि संसार ।। ११२॥
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१. ब प्रति- भव शिव
२. ब प्रति- मिटै मरन की मार ३. ब प्रति - पतपै तेज दिनंद
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C ६२
४. ब प्रति- गर्भित (गर्म) ताप युक्त
५. ब प्रति मुझ
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