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श्रमण / जुलाई-सितम्बर/ १९९७
पस्यौरी ।
पूरब भव आहार, देखत दिष्ट इहि चौबीस सार, अंसकुमार जु तस्यौरी ||६२ || आं० सालिभद्र सुकुमार, श्रेणिक दृष्टि परयौरी । गहि संजम को भार, आतम काज करयोरी ||६३ || आं० देख्यौ जुद्ध अकाज, दीक्षा वेगि ग्रहीरी ।
पांडव तज सब राज, निज-निधि बेग लहीरी || ६३ || आख० कहै कहालौं नाऊ (नाम), जीव अनेक तरेरी । 'भैया' शिवपुर ठाउ, आंखितै जाय भरेरी' || ६५|| आँख
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४. जिह्व इन्द्रिय द्वारा चक्षु इन्द्रिय की आलोचना
जीभ कहै रे आंखि तुम, काहे गर्व करांहि । कांजलि करि जौ रंगिये, तौहू नाहिं लजांहि ॥ ६६ ॥ कायर ज्यौं डरती रहै, घीरज नहि लगार । बात-बात में रोय दै, बोलै गर्व अपार ॥६७॥ जहाँ तहाँ लागी फिरे, देख सलौनो रूप । तेरे ही परसादतैं, दुख पावै चिद्रूप ॥ ६८ ॥ कहा कहौ नग दोष को, मोपै कहौ न जांहि ।
देखि विरानि वस्तु कौं, बहुरि तहाँ ललचांहि ॥६९॥ जिह्वा द्वारा आत्मप्रशंसा
जीभ कहै मोतै सबै, जीवत है संसार । षट्रस भुज्यौ स्वाद ल्यौं, पालूं सब परिवार ||७० || मोबिन आंखि न खुल सकै, कान सुनै नहि बैन । नाक न सूंघौ वास कौ, यो बिन कहूं न चैन ॥ ७१ ॥ मंत्र जपत इहि जीभ सौं, आवत सुरनर धाय । किंकर ह्वै सेवा करै, जीभहिं के सुपसाय ॥७२॥ जीभहीं तैं जपत रहैं, जगत जीव जिननाम | जसु प्रसादतैं सुख लहैं, पावैं उत्तम ठाम ॥७३॥ अथ देसी - चौपाई ढाल “रे जीया तो बिन घड़ी रे छ मास" जतीश्वर ! जीभ बड़ी संसार, जपै पंच नवकार ॥ टेक ॥ जतीश्वर ०
१. ख प्रति - बरेरी
२. ख प्रति विनासी (विरानी = पराई)
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