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________________ श्रमण/जुलाई-सितम्बर/ १९९७ संघ चतुरबिध सब तरै हो, काननि सुनि जिन बैन । निज आतम सुख अनुभवै हौ, पावै सिव पद ऐन ||३७|| काननि ० द्वादसांग वानी सुनैहौ, काननि के गणधर तौ गिरवा' कह्यौ हो, दर्व - सुरति ( द्रव्य-सूत्र ) सब याद ||३८|| काननि काननि सुनि भरतेश्वरे हौ, प्रभु कौ उपज्यौ ज्ञान । परसाद । कियौ महोच्छव हरषसैं हौ, पायौ पद निर्वान ॥ ३९ ॥ काननि० विकट वैन धन्ना सुनै हौ, निकस्यौ तज आवास । दीक्षा गहि किरिया करि हो, पायो शिवगति वास ||४०|| काननि साधु अनाथी सों सुन्यौ हौ, सुनियो जीव विचार । क्षापक समकित ते लह्यौ हौं, पावैगो नेमिनाथ वानी सुनी हौ, लीनौ ते द्वारका के दाहसों हौं, उबरे हैं जीव अपार ॥ ४२ ॥ काननि० पार्श्वनाथ के वैन सुने हौ, महामंत्र नवकार । भवदधि पार ॥ ४१ ॥ काननि० संजम भार । धरणीधर पद्मावती हौ, भए हैं अहि तहि वार ||४३|| काननि० काननि सुनि कानन गए हौ, भूपति तज बहु राज । काज सवारे आपनै हौ, केवलज्ञान उपाज ॥४४॥ काननि० जिनवाणी काननि सुणी हौ, जीव तरै जग माहिं । नाऊं (नाम) कहा लो लीजीयै हौ, "भैया" जे शिवपुर जाहि ||४५ || काननि ० ३. चक्षु - इंद्रिय द्वारा कर्णेन्द्रिय की आलोचना दोहरा - आंखि कहै रे कानि तू, इस्यौ करै अहंकार । मैलनि कर मूद्यौ रहे, लाजै नहीं लगार* ॥४६॥ भली बुरी सुनितै रहै, तौरे सनेह | तोसौं दुष्ट न दूसरौ, धारी ऐसी देह५ ॥४७॥ दुष्ट वचन सुनितै जरै, महाक्रोध उपजंत । तुरत तौ प्रसाद तै जीव बहु, नर्के जाय पड़ंत ॥४८॥ पहिलै तोकौ भेधीकै', नर नारी तौहू नाहि लजात है, बहुर धरै के कांन । अभिमान ॥ ४९ ॥ १. ब प्रति - गुरुवा २. ख प्रति - श्रेणिक ३. अ प्रति - मूथौ Jain Education International : ५७ For Private & Personal Use Only ० ४. अ प्रति- गेवार ५. अ प्रति - धरयौ इनकी देख www.jainelibrary.org
SR No.525031
Book TitleSramana 1997 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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