SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/ १९९७ मिथ्यात्व और अकिंचित्कर को भी स्पष्ट किया है । ये दोनों शब्द आचार्य श्री विद्यासागर जी के प्रवचन में कभी व्यवहत हुए थे, जिसमें उन्होंने मिथ्यात्व को अकिंचित्कर कहा था और उस पर बहुत से लोगों ने आपत्ति उठायी थी । उसी सिलसिले में स्वर्गीय पं० फूलचन्द जी सिद्धांत शास्त्री द्वारा विरचित "अकिंचित्कर एक अनुशीलन' नामक पुस्तक भी उद्धृत है । जिसके संबंध में पं० जगन्मोहन जी ने स्पष्ट लिखा है - "आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज ने मिथ्यात्व को स्थिति अनुभाग डालने में अकिंचित्कर कहा । कुछ विद्वानों ने प्रसंगगत आचार्य श्री के अभिप्राय पर ध्यान न देकर यह अर्थ ग्रहण किया कि आचार्य श्री मिथ्यात्व को अकिंचित्कर कहते हैं जिसका अर्थ होता है मिथ्यात्व कुछ नहीं करता । प्रकरण के अनुसार उनके कहने का जो तात्पर्य था उस पर ध्यान न देते हुए उसका गलत अर्थ तथा प्रचार किया गया।" - इससे यह स्पष्ट होता कि पं० जी ने जो कुछ विवेचन प्रस्तुत किया है वह उनके स्वतंत्र चिन्तन पर आधारित है। किसी भी विषय पर पूर्वाग्रह रहित होकर स्वतंत्र विचार प्रस्तुत करना, विषय और उसके जिज्ञासुओं, सबके लिए न्यायोचित होता है । कर्मबन्ध और उसकी प्रक्रिया आकार की दृष्टि से एक छोटी सी पुस्तिका है परन्तु इसमें विवेचित विषय अत्यन्त सारगर्भित एवं महत्त्वपूर्ण है। पुस्तक की छपाई एवं साज-सज्जा निर्दोष है । इस श्रेष्ठ रचना के लिए रचनाकार और प्रकाशक दोनों बधाई के पात्र हैं । डॉ० सुधा जैन जैनधर्म-दर्शन के प्रमुख सिद्धान्तों की वैज्ञानिकत व्याख्यानकर्ता - श्री० लक्ष्मीचन्द्र जैन, प्रकाशक - श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्थान, नरिया, वाराणसी५, प्रथम संस्करण-सितम्बर १९९६, साइज- डिमाई पेपर बैक; पृष्ठ-३३; मूल्य २० रुपये। पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला -३ के अन्तर्गत प्रो० लक्ष्मीचन्द्र जैन ने क्रमश: वस्तुनिष्ठ एवं व्यक्तिनिष्ठ एक सूत्री अध्ययन का पक्ष प्रदर्शित किया है । जिस प्रकार भौतिकी में अद्भुत क्रान्तिकारी परिवर्तन करनेवाले वैज्ञानिक आइंस्टाइन ने कहा था कि बिना धर्म के विज्ञान अपंग है और बिना विज्ञान के धर्म अंधा है, उसी प्रकार प्रो० जैन से पूर्व जैन धर्म के सिद्धान्तों पर वैज्ञानिकता को छोड़ अन्य विभिन्न प्रकार से विचार तो किया जाता रहा किन्तु विज्ञान की दृष्टि से विचार नहीं किया गया था । प्रो. जैन ने वैज्ञानिक पक्ष को लेकर जैनधर्म-दर्शन के सिद्धान्तों पर विचार करके उस कमी को पूरा कर दिया । उक्त विषय पर उनके द्वारा दिये गये व्याख्यान उपर्युक्त पुस्तक में संगृहीत हैं । पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक है और यह सभी के लिए संग्रहणीय डॉ० जयकृष्ण त्रिपाठी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525031
Book TitleSramana 1997 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy