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श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९७ : ८
स्थापन के प्रयास को अधिक बल मिला हो तथा जैन धर्मावलम्बी धर्म सहिष्णु शासक खारवेल के प्रोत्साहन५० से भी इस प्रकार की वृत्ति को प्रोत्साहन मिला हो।
प्रारम्भिक आगम ग्रन्थों में जहां स्याद्वादी अभिव्यक्ति में “चतुर्भङ्ग' के प्रति विशेष आग्रह है, वहीं प्रथम शती ईसा पूर्व के अन्तिम चरण में "सप्तभङ्गी नय" का प्राधान्य लक्षित होता है । विक्रम की प्रथम शती में हुए आचार्य कुन्दकुन्द के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ “पञ्चास्तिकाय' को हम इसके प्रमाण के रूप में उद्धृत कर सकते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने इसमें न केवल सप्तभङ्गों का विश्लेषण किया है वरन् “सप्तभङ्ग' पद का भी सुस्पष्ट उल्लेख किया है ।
विक्रम की तीसरी से आठवीं शताब्दी तक जैन धर्म के विविध पक्षों की दार्शनिक व्याख्यायें की गईं। अनेक अभिनव प्रतिमानों की स्थापना हुई । कतिपय जैन विचारकों ने इस अवधि-विशेष को जैन दर्शन के क्षेत्र में "अनेकान्त-स्थापन-काल" के रूप में अभिहित किया है ।५१ इस युग के प्रारंभिक चरण में नागार्जुन, वसुबन्धु, असङ्ग, दिङ्नाग जैसे बौद्ध दार्शनिकों का उदय हुआ, उनके प्रभाव.से स्वयं बौद्ध एवं बौद्धेतर दार्शनिक शाखाओं में खण्डन-मण्डन की प्रक्रिया में तीव्रता आई है । इसी अवधि में जैन आचार्यों में आचार्य समन्तभद्र एवं सिद्धसेन ने अपनी कुशाग्र बुद्धि एवं तर्कणाशक्ति से महावीर स्वामी की शिक्षाओं की तर्क-सम्मत व्याख्या करते हुए अनेक दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की, सिद्धान्तों के शुष्क बौद्धिकवादी युग में वितण्डावाद से परे हट समन्वय एवं सहिष्णुता को बढ़ावा देने का प्रयत्न किया और इसके लिये अनेकान्त पोषित स्याद्वाद को माध्यम बनाया ५२
आचार्य समन्तभद्र (विक्रम की द्वितीय-तृतीय शती) ने "आप्तमीमांसा", "युक्त्यनुशासन", "वृहत्स्वयम्भूस्तोत्र" जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना कर उनमें स्याद्वाद के सप्तभङ्गी सिद्धान्त की अनेक दृष्टियों से विवेचना की है । उन्होंने एकान्तवाद की आलोचना एवं अनेकान्तवाद की प्रस्थापना का प्रयास किया । स्याद्वाद के लक्षण को प्रमाणित किया। उन्होंने “सुनय" "दुर्नय” की व्याख्या की, तथा अनेकान्तवाद को और वैज्ञानिक एवं प्रभावी बनाया ।
विक्रम की ४-५वीं शती में हुए जैन आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने 'नय' और 'अनेकान्तवाद' की मौलिक व्याख्या कर “स्याद्वाद'' एवं “अनेकान्तवाद" को न केवल जैन दर्शन के लिए अनिवार्य बना दिया, वरन् अनेकान्तवाद के अभाव में जागतिक व्यवहार को ही असम्भव कहा । इस दृष्टि से उनका यह वक्तव्य -
"जेण विणा लोगस्स ववहारोवि सव्वथा न निव्वइये ।
तस्य भुवणेक गुरुणो णमोऽणेगंतवायस्स ।" अत्यंत महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है । उन्होंने समसामयिक दार्शनिक वादों को जैन. दर्शन में समन्वित करने का प्रयत्न किया, उसे और अधिक व्यापक बनाया । प्रचलित
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