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________________ जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न ८१ जीवनवृत्त एवं आचार-विचार के सम्बन्ध में छठी शती के पूर्व अर्थात् सम्प्रदायों के स्थिरीकरण के पूर्व की कोई भी सामग्री उपलब्ध नहीं है। मात्र अर्धमागधी आगमों में समवायांग में और शौरसेनी आगम-तुल्य ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ति में नाम, माता-पिता, जन्म-नगर आदि सम्बन्धी छिटपुट सूचनाएँ हैं, जो प्रस्तुत चर्चा की दृष्टि से उपयोगी नहीं हैं। इस प्रकार मध्यवर्ती बाईस तीर्थङ्करों में से मात्र बाईसवें अरिष्टनेमि एवं तेईसवें पार्श्व ही ऐसे हैं जिनसे सम्बन्धित सूचनाएँ उत्तराध्ययन के क्रमश: बाईसवें एवं तेईसवें अध्याय में मिलती हैं, किन्तु उनमें भी बाईसवें अध्याय में अरिष्टनेमि की आचार-व्यवस्था का और विशेष रूप से वस्त्र-ग्रहण सम्बन्धी परम्परा का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। उत्तराध्ययन के बाईसवें अध्याय में राजीमति के द्वारा गुफा में वर्षा के कारण भीगा हुआ अपना वस्त्र सुखाने का उल्लेख होने से केवल एक ही तथ्य की पुष्टि होती है कि अरिष्टनेमि की परम्परा में साध्वियाँ सवस्त्र होती थीं। १३ उस गुफा में साधना में स्थित रथनेमि सवस्त्र थे या निर्वस्त्र, ऐसा कोई स्पष्ट संकेत इसमें नहीं है। अत: वस्त्र सम्बन्धी विवाद में केवल पार्श्व एवं महावीर इन दो ऐतिहासिक काल के तीर्थङ्करों के सम्बन्ध में ही जो कुछ साक्ष्य उपलब्ध होते हैं, उनके आधार पर ही चर्चा की जा सकती है। पार्श्व का सचेल धर्म पार्श्व के सम्बन्ध में जो सूचनाएँ हमें उपलब्ध हैं उनमें भी प्राचीनता की दृष्टि से ऋषिभाषित ( लगभग ई० पू० चौथी-पाँचवीं शती ), सूत्रकृतांग ( लगभग तीसरी-चौथी शती ), उत्तराध्ययन ( ई० पू० दूसरी शती ), आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध ( ई० पू० दूसरी शती ) एवं भगवती ( ई० पू० दूसरी शती से लेकर ईसा की दूसरी शती तक ) के उल्लेख महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें भी ऋषिभाषित और सत्रकृतांग में पार्श्व की वस्त्र सम्बन्धी मान्यताओं की स्पष्ट जानकारी प्राप्त नहीं होती। उत्तराध्ययन का तेईसवाँ अध्ययन ही एकमात्र ऐसा आधार है जिसमें महावीर के धर्म को अचेल एवं पार्श्व के धर्म को सचेल या सांगरुत्तर कहा गया है। इससे यह स्पष्ट है कि वस्त्र के सम्बन्ध में महावीर और पार्श्व की परम्पराएँ भिन्न थीं। उत्तराध्ययन की प्राचीनता निर्विवाद है और उसके कथन को अप्रामाणिक नहीं माना जा सकता। पुन: नियुक्ति, भाष्य आदि परवर्ती आगमिक व्याख्याओं से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है। अत: इस कथन की सत्यता में सन्देह करने का कोई स्थान शेष नहीं रहता है। किन्तु पार्श्व की परम्परा के द्वारा मान्य 'सांतरुत्तर' शब्द का क्या अर्थ है --- यह विचारणीय है। सांतरुत्तर शब्द का अर्थ परवर्ती श्वेताम्बर आचार्यों ने विशिष्ट, रंगीन एवं बहुमूल्य वस्त्र किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525030
Book TitleSramana 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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