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________________ १५२ आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान, महत्त्व एवं रचनाकाल पूर्वार्द्ध की रचना है। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में समाहित ग्रन्थ लगभग पन्द्रह सौ वर्ष की सुदीर्घ अवधि में निर्मित होते रहे हैं, फिर भी चउसरण, परवर्ती आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा, संथारग और आराहनापडाया को छोड़कर शेष प्रकीर्णक ई० सन् की पाँचवीं शती के पूर्व की रचनाएँ हैं । ज्ञातव्य है कि महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित 'पइण्णायसुत्ताई' में आउरपच्चक्खाण के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, इनमें वीरभद्र रचित आउरपच्चक्खाण परवर्ती है किन्तु नन्दीसूत्र में उल्लिखित आउरपच्चक्खाण तो प्राचीन ही है । यहाँ पर यह भी ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएँ श्वेताम्बर मान्य अंग-आगमों एवं उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिकसूत्र जैसे प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थों में भी पायी जाती हैं। गद्य अंग-आगमों, में पद्यरूप में इन गाथाओं की उपस्थिति भी यही सिद्ध करती है कि उनमें ये गाथाएँ प्रकीर्णकों से अवतरित हैं। । यह कार्य वलभीवाचना के पूर्व हुआ है, अतः फलित होता है कि नन्दीसूत्र में उल्लिखित प्रकीर्णक वलभीवाचना के पूर्व रचित हैं। तंदुलवैचारिक का उल्लेख दशवैकालिक की प्राचीन अगस्त्यसिंह चूर्णि में है । " इससे उसकी प्राचीनता सिद्ध • हो जाती है। यह चूर्णि अन्य चूर्णियों की अपेक्षा प्राचीन मानी गयी है। १० दिगम्बर परम्परा में मूलाचार, भगवती आराधना और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में प्रकीर्णकों की सैकड़ों गाथाएँ अपने शौरसेनी रूपान्तरण में मिलती हैं। मूलाचार के संक्षिप्त प्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नाम अध्यायों में तो आतुर - प्रत्याख्यान एवं महाप्रत्याख्यान इन दोनों प्रकीर्णकों की लगभग सत्तर से अधिक गाथाएँ हैं । इसी प्रकार मरणविभक्ति प्रकीर्णक की लगभग शताधिक गाथाएँ भगवती आराधना में मिलती हैं। इससे यही फलित होता है कि ये प्रकीर्णक ग्रन्थ मूलाचार एवं भगवती आराधना से पूर्व के हैं। मूलाचार एवं भगवती - आराधना के रचनाकाल को लेकर चाहे कितना भी मतभेद हो, किन्तु इतना निश्चित है कि ये ग्रन्थ ईसा की छठीं शती से परवर्ती नहीं हैं । यद्यपि यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि प्रकीर्णकों में ये गाथाएँ इन यापनीय / अचेल परम्परा के ग्रन्थों से ली गयी होंगी, किन्तु अनेक प्रमाणों के आधार पर यह दावा निरस्त हो जाता है। जिनमें से कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं १. गुणस्थान सिद्धान्त उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र और आचारांगनिर्युक्ति की रचना के पश्चात् लगभग पाँचवीं छठी शती में अस्तित्व में आया है। चूँकि मूलाचार और भगवती आराधना दोनों ग्रन्थों में गुणस्थान का उल्लेख मिलता है, अतः ये ग्रन्थ पाँचवीं शती के बाद की रचनाएँ हैं जबकि आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और मरणसमाधि का उल्लेख नन्दीसूत्र में होने से ये ग्रन्थ पाँचवीं शती Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.525030
Book TitleSramana 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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