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________________ आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान, महत्त्व एवं रचनाकाल १४९ उमास्वाति और देववाचक के समय में तो अंग-आगमों के अतिरिक्त शेष सभी आगमों को प्रकीर्णकों में ही समाहित किया जाता था। इससे जैन आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का क्या स्थान है, यह सिद्ध हो जाता है। प्राचीन दृष्टि से तो अंगआगमों के अतिरिक्त सम्पूर्ण जैन आगमिक साहित्य प्रकीर्णक वर्ग के अन्तर्गत आता है। वर्तमान में प्रकीर्णक वर्ग के अन्तर्गत दस ग्रन्थ मानने की जो परम्परा है, वह न केवल अर्वाचीन है अपितु इस सन्दर्भ में श्वेताम्बर आचार्यों में परस्पर मतभेद भी है कि इन दस प्रकीर्णकों में कौन से ग्रन्थ समाहित किये जाएँ। प्रद्युम्नसूरि ने विचारसारप्रकरण ( चौदहवीं शताब्दी ) में पैंतालीस आगमों का उल्लेख करते हुए कुछ प्रकीर्णकों का उल्लेख किया है। आगम प्रभाकर मुनि पुण्यविजयजी ने चार अलग-अलग सन्दर्भो में प्रकीर्णकों की अलग-अलग सूचियाँ प्रस्तुत की हैं। । अत: दस प्रकीर्णक के अन्तर्गत किन-किन ग्रन्थों को समाहित करना. चाहिये, इस सन्दर्भ में श्वेताम्बर आचार्यों में कहीं भी एकरूपता देखने को नहीं मिलती है। इससे यह फलित होता है कि प्रकीर्णक ग्रन्थों की संख्या दस है, यह मान्यता न केवल परवर्ती है अपितु उसमें एकरूपता का भी अभाव है। भिन्न-भिन्न श्वेताम्बर आचार्य भिन्न-भिन्न सूचियाँ प्रस्तुत करते रहे हैं उनमें कुछ नामों में तो एकरूपता होती है, किन्तु सभी नामों में एकरूपता का अभाव पाया जाता है। जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है उसमें तत्त्वार्थभाष्य का अनुसरण करते हुए अंग-आगमों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों को प्रकीर्णक कहने की ही परम्परा रही है। अत: प्रकीर्णकों की संख्या अमुक ही है, यह कहने का कोई प्रामाणिक आधार नहीं है। वस्तुतः अंग-आगम साहित्य के अतिरिक्त सम्पूर्ण अंगबाह्य आगम साहित्य प्रकीर्णक के अन्तर्गत आते हैं। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य जैन आगम साहित्य के अति विशाल भाग का परिचायक है और उनकी संख्या को दस तक सीमित करने का दृष्टिकोण पर्याप्त रूप से परवर्ती और विवादास्पद है। प्रकीर्णक साहित्य का महत्त्व यद्यपि वर्तमान में श्वेताम्बर जैनों के स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय प्रकीर्णकों को आगमों के अन्तर्गत मान्य नहीं करते हैं किन्तु प्रकीर्णकों की विषयवस्तु का अध्ययन करने से ऐसा लगता है कि अनेक प्रकीर्णक अंग-आगमों की अपेक्षा भी साधना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। यद्यपि यह सत्य है कि आचार्य वीरभद्र द्वारा ईसा की दसवीं शती में रचित कुछ प्रकीर्णक अर्वाचीन हैं, किन्तु इससे सम्पूर्ण प्रकीर्णकों की अर्वाचीनता सिद्ध नहीं होती। विषयवस्तु की दृष्टि से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525030
Book TitleSramana 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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