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________________ स्त्रीमुक्ति, अन्यतैर्थिक मुक्ति एवं सवस्त्रमुक्ति का प्रश्न है क्योंकि मोक्ष के लिये तो रत्नत्रय के अतिरिक्त अन्य कोई भी बात आवश्यक नहीं है। १२४ पुनः स्त्री की नग्नदीक्षा का निषेध कर देने का अर्थ भी उसकी मुक्ति की योग्यता का निषेध नहीं है क्योंकि जिनशासन की प्रभावना के लिये उन व्यक्तियों की प्रव्रज्या का निषेध भी किया जाता है जो रत्नत्रय के पालन में सक्षम होते हैं। तात्पर्य यह है कि किसी के अचेल दीक्षा के निषेध से उसकी मुक्ति का निषेध सिद्ध नहीं होता है । यदि यह कहा जाय कि स्त्रियाँ इसलिये सिद्ध नहीं हो सकती हैं क्योंकि वे मुनियों के द्वारा वन्दनीय नहीं होतीं, जैसा कि आगम में कहा गया है कि सौ वर्ष की दीक्षिता साध्वी भी एक दिन के नव दीक्षित मुनि को वन्दन करे । इसके प्रत्युत्तर में शाकटायन कहते हैं कि मुनि के द्वारा वन्दनीय न होने से उन्हें मोक्ष के अयोग्य मानोगे तो फिर यह भी मानना पड़ेगा कि अर्हत् ( तीर्थङ्कर ) के द्वारा वन्दनीय होने से कोई भी व्यक्ति मोक्ष का अधिकारी नहीं होगा क्योंकि अर्हत् तो किसी को भी वन्दन नहीं करता है। इसी प्रकार स्थविरकल्पी मुनि, जिनकल्पी मुनि के द्वारा वन्दनीय नहीं हैं, अतः यह भी मानना होगा कि स्थविरकल्पी मुनि भी मोक्ष के अधिकारी नहीं हैं। इसी प्रकार जिन, गणधर को वन्दन नहीं करते हैं, अतः गणधर भी मोक्ष के अधिकारी नहीं है। यह लौकिक व्यवहार मुक्ति का कारण नहीं है। मुक्ति का कारण तो व्रत पालन है और व्रत पालन में स्त्री-पुरुष समान ही माने गए हैं। सभी सांसारिक विषयों में तो स्त्रियाँ पुरुषों से निम्न ही मानी जाती हैं। अतः मोक्ष के सम्बन्ध में भी उन्हें निम्न ही क्यों नहीं माना जाना चाहिए ? तीर्थङ्कर पद भी तो केवल पुरुष को ही प्राप्त होता है इसलिये पुरुष ही मुक्ति का अधिकारी है। इसके प्रत्युत्तर में यापनीयों का तर्क यह है कि तीर्थङ्कर तो केवल क्षत्रिय होते हैं, ब्राह्मण, शूद्र, वैश्य तो तीर्थङ्कर नहीं होते, तो फिर क्या यह माना जाय कि ब्राह्मण, शूद्र, वैश्य मुक्ति के अधिकारी नहीं होते ? पुनः सिद्ध न तो स्त्री है, न पुरुष । अतः सिद्ध का लिंग से कोई सम्बन्ध ही नहीं है । यदि यह तर्क दिया जाय कि स्त्रियाँ कपटवृत्ति वाली या मायावी होती हैं। तो इसका प्रत्युत्तर यह है कि व्यवहार में तो पुरुष भी मायावी देखे जाते हैं। 1 पुनः यदि यह कहा जाय कि पुरुष के समान स्त्रियों का कोई भी सिद्ध क्षेत्र उल्लिखित नहीं है तो यह बात अनेक पुरुषों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। सभी पुरुषों के सिद्ध क्षेत्र तो प्रसिद्ध नहीं हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525030
Book TitleSramana 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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